मिलें छत्तीसगढ की एक ऐसी बहू से जो बिहार की बेटी हैं : जिन्हें बिहार से ” डॉ.खूबचन्द बघेल ” लाये थे चुनकर – आइये जानते हैं उनकी पूरी कहानी अम्माजी की जुबानी….
मिलें छत्तीसगढ की एक ऐसी बहू से जो बिहार की बेटी हैं : जिन्हें बिहार से “स्व. डॉ.खूबचन्द बघेल ” लाये थे चुनकर – आइये जानते हैं उनकी पूरी कहानी अम्माजी की जुबानी….
भुवन वर्मा बिलासपुर 22 फरवरी 2022
भिलाई । मैं शैलदेवी देशमुख 1937 में बिहार के मुंगेर जिले के बरियारपुर में पचास हजार बीघा जमीन के मालिक श्री शिवाधीनबाबू के घर उनकी पत्नी जयंतीदेवी की चौथी सन्तान के रूप में जन्मीं । जिन्हें उस समय वहाँ “हजरिया मालिक” या “मंडल” कहा जाता था। हमारी माँ और बड़ी माँ दोनो सगी बहनें थीं। जो एक ही घर मे ब्याहकर आईं थीं। माँ मेरे बाद मेरे छोटे भाई के जन्म के समय ही चल बसीं। हम बच्चों की देखरेख के लिये परिवार और दादी ने बहुत दबाव डालकर पिता की इच्छा के विरुद्ध उनकी दूसरी शादी करवाई । नई माँ तारा बहुत ही अच्छी थीं उन्होंने हमें खूब प्यार दिया । शायद हमारी सगी माँ भी हमें उतना प्यार न दे पातीं। हमें नई माँ से एक भाई और एक बहन मिले। हम बच्चों में उन्होनें कभी कोई भेद नही किया। बाहर का कोई कभी जान भी नही पाया कि हम दो माँ की संताने हैं।
हम दिन भर खेलते और दादी से कहानियाँ सुनते थे। बरियारपुर प्राइमरी स्कूल में हम सबने पढ़ाई की। डॉक्टर खूबचंद बघेल जी पटना के अधिवेशन में गये थे।वहाँ हमारे बाबुजी भी जाया करते थे। दोनो की जब भेंट हुई बाबुजी डॉ.बघेलजी को घर लेकर आये । बघेल जी दिन भर हमारे साथ घर पर रहे। तब हम छोटे-छोटे थे। हमने उन्हें नाश्ता पानी वगैरह दिया। हमें उन्होंने शायद तभी परख लिया था और बाद में दीदी को अपने समधी के परिवार के लिये माँग लिया। जहां उनकी बेटी ‘राधा’ जी चंदैनी गोंदा के संस्थापक बघेरा वाले दाऊ “डॉक्टर रामचंद्र देशमुख” के लिये ब्याही गई थीं।
हमारे भैया जब दामाद और घर देखने यहां आये थे। तब छत्तीसगढ मध्यप्रदेश का हिस्सा था और विकास की दृष्टि से बहुत पिछड़ा था। सड़कें,बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नही थी। भैया ने वापस जाकर जब घर मे बात की सभी चिंतित हुए और उन्होंने हल निकाला कि यदि होने वाले समधी मान जायें तो दोनों बहनों को एक साथ एक ही घर मे ब्याह देते हैं जिससे यहां से इतनी दूर होने पर सुख-दुख में दोनो बहनें आपस मे साथ रहेंगी। पिनकापार वालों से जब बात की गई उन्हें भी यह बात ठीक लगी।
टीका के लिये मेरे पिताजी
उस समय बिहार के चलन के अनुसार काफी रुपए लेकर आये थे । सामानों की खरीददारी के लिये उन्होंने जब बाजार जाने की इच्छा जताई तो ससुरजी और परिवार ने तब उन्हें मना कर दिया और कहा यहाँ छत्तीसगढ़ में यह रिवाज नही चलता । आप केवल दो काँसे की थाली में इक्यावन-इक्यावन रूपए रखकर नेंग कर लीजिये और बच्चों को आशीर्वाद दीजिये। मेरे पिता और परिवार ने यह देखसुन कर कहा लड़के हीरा हैं और ये परिवार स्वर्ग।
इस तरह हम दोनो बहनें विवाह के बाद छत्तीसगढ़ में बहू बनकर आ गईं। हम ट्रेन से राजनांदगांव तक आये और वहाँ से उतरकर गाँव पिनकापार तक बैलगाड़ी में आये थे।तब पिनकापार,बघेरा,हरदी तीनो ही सोलह आना गाँव थे। जिनमे देशमुख परिवार का निवास था।
गांव में मिट्टी का घर और बड़ा सा आँगन देखकर हमें अचरज हुआ।
शादी के बाद दीदी को टायफाइड हो गया था। जब गौने के लिये गए तो बुखार की हालत में उनका इतना लंबा सफर करना मुश्किल जानकर हमारे घरवालों ने कहा कि दीदी के ठीक होने के बाद छोटी बहन के साथ ही उनका भी गौना कराकर ले जायें। पर हमारे ससूराल वालों ने कहा हम बहू लेने आये हैं,अब खाली हाथ कैसे लौटेंगे अभी छोटी बहु को ही ले चलते हैं। इस तरह मैं पहले आई मेरे आने के छह महीने बाद दीदी आईं।
शादी के बाद जब मैं अकेली यहाँ आई , मेरे लिये सब कुछ बिल्कुल अलग और नया था। पतिदेव तब दिल्ली में डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे थे। हमारी उम्र में नौ साल का अंतर था।बोलचाल,खानपान ,रहनसहन सब मे फर्क था। तेरह साल की उम्र थी बचपना था। कई बार मैं रोने लगती। कई बार भूखी रहती। बहुत दूर से बहु लाये हैं कहकर सास-ससुर बहुत प्यार करते थे। सास अपने साथ ही सुलातीं और दोनो बेटी की तरह प्यार से रखते थे। अक्सर कहते- जैसा वहाँ खाती हो वैसा ही बनवा लिया करो। हमारे लिये नाश्ते में दो पराठे बनते थे।
यहां तब संयुक्त परिवार था। 22 सौंजिया और सौंजनींन काम करते थे। किचन में चिमनी जलती थी और घर मे ग्यारह लालटेन जलते थे । आँगन में एक बड़ा लैंप जलता था। पहले 300 आदमियों का भोजन बनता था। बाद में 150 लोंगो का खाना बनने लगा। चार रसोइए थे जो खाना बनने के बाद एक खिड़की से घण्टी बजाते थे। पहली घण्टी बच्चों के लिये होती थी।फिर क्रमशः
चार पाली में खाना परोसा जाता था। जिसमें पहले बड़ों को,फिर बेटों को सास और घर की बड़ी महिलाओं की तथा बहुओं व पिछली तीन घण्टियों में न पहुँच पाने वालों को चौथी घण्टी में खाना परोसा जाता था।
मुझे एक बार चूल्हा जलाने के लिये छेना मंगाया गया। मैं समझी नहीं। मैने दुध से बना छेना(पनीर) समझकर सोचा ये लोग इतने अमीर हैं कि चूल्हे में छेना जलाते हैं, इसे हम वहां गोइठा बोलते थे। ऐसे ही रोज खूब गड़बड़ियाँ हुआ करती और मेरी बातें सुनकर सब हँसने लगते और दिनभर सब खूब मजे लेते। मेरी बड़ी जेठानी(डॉ.सुरेश देशमुख की माताजी) बनारस से आईं थी मैं केवल उनसे ही बात कर पाती थी क्योंकि केवल वही हिंदी बोलती थीं। तब सुरेश बाबू ढाई साल के थे। मैं डायरी में लिखकर रखती थी कि पठौंहा और कुरिया आदि किसे कहते हैं।
मिट्टी का घर था हमें अपना कमरा गोबर से लीपना होता था। मुझे गोबर छूने से उल्टी हो जाती थी। मेरी ननद तब कहतीं, रहने दो भाभी मैं चुपचाप कर दिया करूँगी पर छुपकर कितने दिन चलता। सबको पता चल ही जाता। सासें कहती बासी खाना सीख लो तभी फुर्ती आएगी सुस्त बनी रहती हो। मेरी ननद ने एक दिन खूब मज़ाक किया, एक बड़े बर्तन में बासी डाला उसी में दाल,सब्जी अचार सब डालकर ले आईं और कहा लो भाभी इसे खाओ यही है हमारे छतीसगढ़ का बासी मैंने बासी को देखा और उसकी शक्ल देखकर रुंआँसी होकर कहा – ऐसे तो हमारे यहां गइया खाती है। सब खूब हँसने लगे। तब फिर से ननद ने मुझे एक दूसरे बर्तन में बासी और नमक और अलग से अचार और प्याज लाकर दिया । फिर मैं भी बासी खाना सीख गई और खूब काम करना भी सीख गई। लगभग तीन साल हमें लगे सब कुछ सीखने में । फिर तो जब मैं मायके जाती वहां अपने भतीजों से कहती कि बिहार के लोग बरसात में बाढ़ से,ठंडी में ठंड से और गर्मी में लू लगने से मर जाते हैं। गर्मी में मैंने उन्हें जब दही बासी का स्वाद चखाया और इसे लू का तोड़ बताया फिर तो बासी का स्वाद उन्हें भी खूब भाया। एक बार मैंने उन्हें ठेठरी खिलाई उन सबको बहुत पसन्द आया। उन्होंने मुझसे उसका नाम पुछा पर वहां पर अंतिम यात्रा के लिये जो बांस की खटरी बनती है उसे ठेठरी कहा जाता है। मुझे लगा नाम सुनकर ये पता नही क्या सोचें इसलिये उन्हें कह दिया इसका नाम बतिया है वो मजे लेकर खाने लगे। उसी तरह यहाँ जब मैं वहाँ की चीजें बनाया करती यहाँ पर भी सबको बहुत अच्छा लगता।
मेरे ससुरजी के सात भाई थे और सभी साथ रहते थे। सबको खर्च के लिये बराबर पैसे मिलते थे। डॉक्टर साहब जब पुरानी दिल्ली में डॉक्टरी पढ़ते थे उन्होंने वहां अपने प्रिंसिपल और प्रोफेसर के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपना ख़र्च चलाया।उस समय भाभियाँ देवर और ननदो के पाँव छूती थीं। डॉक्टर साहब जब दिल्ली जा रहे थे । अपनी भाभियों को अपना पाँव छूने से रोका और उन्हें प्रणाम कर कहा आप लोग माँ समान हो। इस तरह बहुत से छोटे छोटे सुधार धीरे-धीरे होते गये।
डॉक्टर साहब ने 1945 में मैट्रिक के बाद दिल्ली से मेडिकल की पढ़ाई की वे गोल्ड मैडलिस्ट रहे। उन दिनों देश में स्वतंत्रता आंदोलन का जोर था और अस्थिरता के चलते कई बार कॉलेज बन्द हो जाते थे। तब उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से भी पढ़ाई की। जिसके बाद दिल्ली में ही उनकी नौकरी लगी पर ससुरजी ने कहा तुम्हे गांवों में सेवा करने के लिये डॉक्टर बनाया है। तो डॉक्टर साहब नौकरी छोड़कर गाँव पिनकापार आकर रहने लगे। यहाँ जनपद से उनकी पहली नौकरी गोढ़ी में लगी। फिर निकुम,थनौद फिर धमधा आये धमधा में चिकित्सा सेवा करते हुये 1987 में रिटायर हुये। पर जनपद से नियुक्त होने के कारण पेंशन की पात्रता नही थी। पिनकापार का देशमुख परिवार पीढ़ियों से लकवे की चिकित्सा के लिये प्रसिद्ध है। आज भी परिवार की बहू डॉ.जीविका चंदेल ये परम्परा निभा रही है। और डॉक्टर साहब के स्थान पर दवाइयाँ देतीं हैं। और अपने गुरु के सम्मान में अब भी वो उनकी कुर्सी पर नहीं बैठती।
डॉक्टर साहब ने अपने आयुर्वेद के गहन शोध और ज्ञान से बात और लकवे की कुछ नई दवाइयाँ भी बनाई। लकवे की दवाई ‘हरताल गुटिका’ उनकी ही खोज है।
बड़े दामाद डॉ.डोमार मढ़रिया पहले भारतीय थे, जो अर्जेंटीना से एमबीबीएस की पढ़ाई करके वहीं डॉक्टर रहे।उन्होंने वहाँ से यहाँ आकर अपने सुसरजी डॉक्टर साहब से आयुर्वेद की शिक्षा लेकर अर्जेंटीना में उसका प्रचार किया।वहाँ की यूनिवर्सिटी में डॉक्टर साहब को कई बार लेक्चर के लिये बुलाया गया है और उनके आयुर्वेदिक शोध से प्रभावित होकर उनके ज्ञान और खोज को वहाँ के कोर्स में शामिल किया गया तथा उन पर बहुत से छात्रों ने शोध किया है। मैं भी तीन बार अर्जेंटीना की यात्रा कर चुकी हूँ दो बार डॉक्टर साहब के साथ गई थी।
पतिदेव वैद्यराज जोगेश्वर प्रसाद देशमुख ने जब मेडिकल कॉलेज में पढ़ते समय प्रैक्टिकल के लिये मृत मानव देह नही मिली और दो की जगह चार छात्रों को एक ही देह पर अभ्यास करना पड़ा तभी देहदान का संकल्प ले लिया था। 2017 में जब उनकी मृत्यु हुई चंदूलाल चन्द्राकर अस्पताल कचान्दूर को देह दान किया गया।
हमारे बच्चे शोभा,सुमति,संजय,विवेक, श्रीकांत ,सुमन सभी अपने परिवारों में खुश हैं। बड़ी और मझली बेटी एक ही परिवार में ब्याही गई हैं। हमारे 3 बच्चे अर्जेन्टीना में हैं और तीन भारत मे । हमारे भैया स्व.सुरेश कुमार सिंह बिहार के विधायक रहे। भतीजा शैलेष सिंह नीतीश कुमार जी के साथ मंत्री रहे। हम तीन बहने थीं बड़ी बहन भागलपुर के साहेबगंज में वहाँ के सबसे अमीर आदमी की बहू बनी थीं। बिहार से छत्तीसगढ़ की स्थिति की तुलना करने पर तब और अब भी मैं हर बार, हर बात में छत्तीसगढ को श्रेष्ठ ही पाती हूँ। बिहार दहेज के नाम पर बदनाम रहा है, और यहाँ वैसा कुछ भी नही था। मेरा सौभाग्य जो मुझे यहाँ की बहू बनने का अवसर मिला। मायके वाले जब भी यहाँ आते थे यहाँ की शांतिपूर्ण स्थिति देखकर कहते छतीसगढ़ में ‘राम-राज’ है। यहाँ के लोग सीधे हैं और कोई दिखावा नही है। बेटियों और बहुओं को जो मान यहाँ मिलता है वह दुनिया मे अन्यत्र दुर्लभ है। डॉक्टर खूबचन्द बघेल जी जब तक जीवित थे उनसे बहुत स्नेह मिला हमेशा हमारा बहुत ख़्याल रखते थे और खुद आकर हालचाल पूछते रहते थे।
आज उनकी पुण्यतिथि पर उनके चरणों मे शत शत नमन…. अम्माजी श्रीमती शैल देवी देशमुख जी से बातचीत पर आधारित :- मेनका वर्मा भिलाई की रिपोर्ट।