आत्मतत्व असंग है – पुरी शंकराचार्य

भुवन वर्मा बिलासपुर 13 जनवरी 2021

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज नश्वर सुख के संबंध में संकेत करते हैं कि अविद्या , काम और कर्म को उपनिषदों में हृदयग्रंथि माना गया है । कामना क्यों होती है, किसके कारण होती है और किसकी होती है ? इस पर विचार करना चाहिये। अपने में त्रुटि या न्यूनता देखने पर सामने उस न्यूनता को पूर्ण करने की क्षमता को देखकर मन में कामना का उदय होता है और अंत में जो कमनीय पदार्थ है उसकी प्राप्ति हो जाने पर भी कृतार्थता सुलभ नहीं होती कारण क्या है ? हमको सुख चाहिये , आनंद चाहिये , मूल बात तो यही है और अयोग या संयोग के गर्भ से जो सुख प्राप्त होता है वह तो नश्वर होता है । जो भी संयोग है उसका एक सिद्धांत है , कोई भी संयोग जब अयोग के गर्भ से टपकता है वियोग रूप गर्त में जाकर समा जाता है , यह एक शाश्वत सिद्धांत है। भगवान ने कहा है सुख ही नही दुःख की भी तितिक्षा होना चाहिये , दुःख तो अप्रिय है , उसके प्रति सहिष्णुता की भावना नही है । विषयजन्य सुख भी प्राप्त करने से बचना चाहिये वह भी अगमापायी है माने आने जाने वाला है। महाभारत में वैशम्पायन महाभाग का एक वचन है – प्यारी प्यारी वस्तु ,प्यारे प्यारे व्यक्ति का वियोग प्राप्त ना हो , प्रिय का वियोग जिसको सुहाता ना हो उसकी बुद्धि की बलिहारी इसी में है कि वह संयोग का पक्षधर ना बनें। आत्मतत्व तो असंग है उसमे किसी का संगम संभव नही वह लिप्त होने वाला तत्व नही है चाहे अनुकूल की प्राप्ति हो या प्रतिकूल की प्राप्ति हो वह सबका अलिप्त द्रष्टा या साक्षी है। एक अद्भुत तथ्य है प्रकृति जो होती है वह अपने रहस्यों को प्रकट करती है लेकिन हमारा ध्यान केन्द्रित नहीं होता। आस्तिक लोग इस तथ्य को समझते होंगे कि हमारा यह पहला जन्म नहीं है , देहात्मवादी हम नहीं है और हर व्यक्ति जातिस्मर योगी भी नहीं होता , जातिस्मर योगी का अर्थ होता है पूर्वजन्मो का जिसे स्मरण हो ऐसा तो करोडो़ में कोई एक व्यक्ति होता है ! तो अनादि काल से अब तक जितने व्यक्तियों का हमें संयोग प्राप्त हुआ या जितने शरीरों का हमें संयोग प्राप्त हुआ इस शरीर के अतिरिक्त उन सभी को प्रकृति ने विस्मृति के गर्भ में डाल दिया या नहीं ? गंभीरतापूर्वक विचार करें तो आत्मतत्व असंग है उसकी असंगता इतनी उद्दीप्त है और प्रकृति उसकी असंगता के बल पर ख्यापित करती है कि अनादिकाल से जितनी वस्तु या व्यक्ति या जितने शरीरो का संयोग पूर्वजन्म में हुआ उसका स्मरण है क्या ? प्रकृति सबको विस्मरण के गर्त में डाल देती है मानो कुछ हुआ ही नहीं। चौकाने वाली बात है कदाचित आपको दस मिनिट के लिये ही भगवान की कृपा से दिव्य चक्षु मिल जाये जिससे अनादिकाल से अब तक जितने शरीरों को शव बना चूका वे त्यागे गये शरीरों का दर्शन हो तो एक एक व्यक्ति के त्यागे गये शरीरों से ब्रह्माण्ड पट जायेगा।

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