धर्मराज्य में राजा व प्रजा एक दूसरे के पूरक — पुरी शंकराचार्य

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धर्मराज्य में राजा व प्रजा एक दूसरे के पूरक — पुरी शंकराचार्य

भुवनवर्मा बिलासपुर 1 अक्टूबर 2020

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

जगन्नाथपुरी — ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज अथर्ववेद का उद्धरण देते हुये कहते हैं कि वेद में उल्लेखित वचनों के अनुशीलन से यह तथ्य सिद्ध है कि प्रजा को प्रमुदित करनेवाला राष्ट्राधिपति राजा प्रजा को बाह्याभ्यन्तर सत्ता , स्फूर्ति और स्नेहप्रदायक सदा उद्दीप्त दिव्यालोक है। उसमें पृथ्वी , पानी , प्रकाश , पवन और आकाश ; तद्वत् ब्रह्मा विष्णु शिव , शक्ति , गणपति , बृहस्पति , इन्द्र ,सोम ,सूर्य , अग्नि , वरूण , यम , अश्विनी और कुबेरादि सदृश उत्पत्ति , स्थिति , संहृति , निग्रह और अनुग्रह शक्तियों का सन्निवेश है। पृथ्वी और अग्निसदृश ब्रह्मबल सम्पन्न बृहस्पतितुल्य आचार्य तथा द्युलोक और आदित्यसदृश क्षत्रबल सम्पन्न इन्द्रतुल्य राजा के सौजन्य से प्रजा को उन्नत जीवन , प्रकाश और उल्लास की समुपलब्धि सुनिश्चित है। प्रजा से पोषित राजा प्रजा का सर्वविध परिपोषक सिद्ध होता है। सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर से रञ्जित प्रजा राजा का उद्भवस्थान है। स्थावर , जङ्गम संज्ञक सर्वविध प्रजा को परम्परा प्राप्त निसर्गसिद्ध अन्नादि भोग्य सामग्रियों से तथा उसे पचाने में समर्थ अद्भूत पाचनशक्ति से सम्पन्न कर उसके सर्वविध कल्याण में संलग्न सभा , समिति , सेना और सुरासंज्ञक ह्लादिनी शक्ति से संपन्न पृथु तथा पवनसदृश परिपोषक शासक का अद्भुत महत्त्व हृदयङ्गम करने योग्य है। धर्मनियन्त्रित , पक्षपातविहीन , शोषणविनिर्मुक्त, सर्वहितप्रद सनातन शासनतन्त्र की स्थापना के बिना सबका समुचित पोषण असम्भव है।महाराजाधिराज पृथु ने कृषि के अनुकूल भूमि सुलभ कराकर और स्थावर — जङ्गम प्राणिमात्र को ; तद्वत् पर्वतादि को निसर्गसिद्ध परम्परा प्राप्त अन्न सुलभ कराकर आदर्श शासक के रूप में स्वयं को ख्यापित किया। भूमि अभीष्ट वस्तुओं को देने में समर्थ है। पृथु महाभाग ने जातिप्रमुख को वत्स , जाति को दोग्धा तथा सञ्चय — संस्थान को पात्र सुनिश्चित गौरूपा पृथ्वी के दोहन से विविध प्रकार के अन्न प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। तदनुसार उन्होंने समस्त धान्य मनुष्यों को ; वेद ऋषियों को , अमृत एवम् मनोबल रूप वीर्य , इन्द्रियबल रूप ओज , शारीरिक बलरूप सहस् देवों को ; सुरासव दैत्य – दानव — असुरों को ; गंधर्व — सङ्गीतमाधुर्य , सौन्दर्य गन्धर्व तथा अप्सराओं को ; कव्य पितरों को ; हव्य देवों को ; अष्टसिद्धि सिद्धों को ; सिद्धि एवम् विविधविद्या विद्याधरों को ; अन्तर्धान तथा कायव्यूहादि किम्पुरुषादि और मायावियों को ; रूधिरासव यक्ष — राक्षस– भूत-प्रेतों को ; विष सर्पादि विषधरों को ; तृणादि पशुओं को ; कच्चा मांस व्याघ्रादिकों को ; कीट — पतङ्ग — फलादि पक्षियों को ; रस वृक्षों को ; मणि — माणिक्यादि विविध धातु स्थावर — जङ्गम — प्राणिनिकेत पर्वतों को सुलभ कराया।

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