ज्ञानवापी विवाद और तथ्य इतिहास के पन्नों में है दर्ज : आक्रांता औरंगजेब ने मंदिर तुड़वा मस्जिद में बदला – पर नाम तो संस्कृत वाला ही रह गया

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ज्ञानवापी विवाद और तथ्य इतिहास के पन्नों में है दर्ज : आक्रांता औरंगजेब ने मंदिर तुड़वा मस्जिद में बदला – पर नाम तो संस्कृत वाला ही रह गया

भुवन वर्मा बिलासपुर 17 मई 2022

आलेख – प्रो. राजीव श्रीवास्तव इतिहास विभाग, काशी हिंदू विश्व विद्यालय बनारस

काशी । धरती पर कहीं भी मस्जिद का नाम संस्कृत में नहीं है। तब, संस्कृत नाम ‘ज्ञानवापी’ को मस्जिद कैसे मान सकते हैं? यह मंदिर है और इसके ऐतिहासिक तथ्य उन किताबों में भी हैं, जिन्हें मुस्लिम आक्रांता अपनी कट्टरता और बहादुरी दिखाने के लिए खुद दर्ज भी कराते थे। 1194 से प्रयास करते-करते आखिरकार 1669 में ज्ञानवापी मंदिर को मस्जिद का रूप दिया गया और हर प्रयास, हर आक्रमण और मुस्लिम आक्रांताओं की हर कथित उपलब्धि इतिहास की किताबों में दर्ज है। यहां तक कि ‘मसीरे आलमगीरी’ में औरंगजेब के समकालीन इतिहासकार साकिद मुस्तयिक खां ने आंखोदेखी लिखी है- ‘औरंगजेब ने विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना इस्लाम की विजय पताका फहरा दी।’

हिदुओं का प्रसिद्ध धर्मस्थल काशी मुस्लिम आक्रांताओं के हमेशा निशाने पर रहा। 1194 में मोहम्मद गोरी ने मंदिर को तोड़ा भी था, लेकिन फिर काशी वालों ने खुद ही उसका जीर्णोद्धार कर लिया। फिर, 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तोड़ दिया। करीब डेढ़ सौ साल बाद 1585 में राजा टोडरमल ने अकबर के समय उसे दोबारा बनवा दिया। 1632 में शाहजहां ने भी मंदिर तोड़ने के लिए सेना भेजी, लेकिन हिंदुओं के विरोध के कारण वह असफल रहा। उसकी सेना ने काशी के अन्य 63 मंदिरों को जरूर तहसनहस कर दिया।

औरंगजेब के समकालीन ने किताब में भी लिखा है 1707 में औरंगजेब की मौत के बाद 1710 में मुस्तयिक खां की ‘मसीरे आलमगीरी’ आई, जिसमें लिखा है- ‘औरंगजेब के आदेश पर आदि विश्वेश्वर का मंदिर तोड़ा गया।’ बनारस गजेटियर में भी मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की बात लिखी है।

औरंगजेब ने 8-9 अप्रैल 1969 को अपने सूबेदार अबुल हसन को काशी का मंदिर तोड़ने भेजा। सितंबर 1669 को अबुल हसन ने औरंगजेब को पत्र लिखा- ‘मंदिर को तोड़ दिया गया है और उस पर मस्जिद बना दी गई है।’ औरंगजेब ने काशी का नाम औरंगाबाद भी कर दिया था। कथित ज्ञानवापी मस्जिद उसी के समय की देन है। मंदिर को जल्दी जल्दी में तोड़ने के क्रम में उसी के गुंबद को मस्जिद के गुंबद जैसा बना दिया गया। नंदी वहीं रह गए। शिव के अरघे और शिवलिंग भी आक्रांता नहीं तोड़ सके। 1752 में मराठा सरदार दत्ता जी सिंधिया और मल्हार राव होलकर ने मंदिर मुक्ति का प्रयास किया, लेकिन हल नहीं निकला। 1835 में महाराजा रणजीत सिंह ने प्रयास किया तो उनकी लड़ाई को दंगे का नाम दे दिया गया।

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