बस्तर में बस पैसे का झगड़ा है….पुलिस और नक्सलियों में पैसे को लेकर लंबा विवाद चला : वह हत्याओं में तब्दील हो चुका है- इसका खामियाजा आज भी भोग रहे हैं पुलिस बीसीएफ और आमजन
भुवन वर्मा बिलासपुर 23 जून 2021

जगदलपुर । देश के खनिज संपदा से परिपूर्ण वनांचल क्षेत्रों में लाल कालिडोर हावी है चूंकि इन स्थानों में अवैध कारोबार जमकर चलता है। आइए इस तथ्य को समझने के लिए पीछे चलें…जब बस्तर में डंडा लेकर नक्सली आए थे और गांवों में न्याय की बातें करते हुए ग्रामीणों को उनकी उपज का वास्तविक दाम दिला व जनसभा में सामाजिक झगड़े निपटा रहे थे तब पुलिस वाले कहते थे ‘ हमारा काम तो नक्सली कर रहे हैं ‘। उधर नक्सलियों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में पैठ जमाने के बाद पुलिस थानों में वारदातों की शिकायतें नहीं आने लगी। इसके चलते कथित अपराधियों को बचाने, आत्महत्या को हत्या बताने आदि अनैतिक कार्यों से जो कमाई होती थी। वह बंद हो गई। जिस गांव में घटनाएं होती थी । वहां के कोटवार को धमकाते हुए पीड़ित पक्षों को थाने बुलाकर रिपोर्ट लिखवाने दबाव डालने लगे। नक्सली फैसलों पर पुलिस की दखलंदाजी के चलते दोनों में विवाद बढ़ने लगा।

दूसरी तरफ देखें तो बस्तर के वनांचल इलाकों से वनोपज या खनिज अवैध तरीके से परिवहन किए जाते हैं। उससे विभिन्न नाकों में पुलिस, मंडी और वन कर्मचारियों को हिस्सा मिलता रहा और आज भी मिलता है, इसलिए नक्सलियों ने अवैध कारोबार करने वालों को धमकाने लगे कि जब आप पुलिस, मंडी और वन कर्मचारियों को हिस्सा देते हो तो हमारे क्षेत्र से माल उठाने के बदले हमें हिस्सा क्यों नहीं दोगे..?
इसके चलते पुलिस और नक्सलियों में पैसे को लेकर जो लंबा विवाद चला। वह हत्याओं में तब्दील हो चुका है। इसका खामियाजा नक्सलियों को कम पुलिस- सीआरपीएफ और स्थानीय ग्रामीणों को ज्यादा उठाना पड़ा है।

सलवा जुडूम की बात करें तो बीजापुर जिला के कुटरू क्षेत्र में नक्सलियों ने अस्पतालों और राशन लाने वाली गाड़ियों को लूटना प्रारंभ कर दिया था। राशन नहीं मिलने के कारण ग्रामीणों को कंद- मूल, जंगली भाजी खाकर जीवन व्यतीत करना पड़ रहा था इसलिए ग्रामीणों ने नक्सलियों के खिलाफ आवाज उठाई परंतु ग्रामीणों के स्व आंदोलन को कुछ समय तक मदद करने के बाद श्रेय लेने की होड़ मची और एक महत्वपूर्ण जन आंदोलन बस्तर में राजनीति की भेंट चढ़ गया।
तीसरा तथ्य यह है कि पंचायती राज व्यवस्था के तहत ग्रामसभा को अपनी पंचायत के लिए वाजिब निर्णय लेने और विकास कार्य कराने का अधिकार दिया गया परंतु अफसरशाही के चलते जो निर्णय पांच से 10 साल पहले लिए गए थे। वे वर्षों बाद भी नहीं हो पाए। वहीं संबंधित विभाग के अधिकारी, कार्य स्वीकृत करवाने वाले नेताओं और ठेकेदारों की मिलीभगत से विकास कार्यो में जो बंदरबांट हुई, उससे ग्रामीण नाराज हुए। पंचायतों को स्वयं विकास कार्य करने का मौका ही नहीं मिला। क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों के नुमाइंदे ही विकास कार्यों का ठेका लेने लगे। इन सारी बातों का फायदा नक्सलियों ने उठाया और वे ग्रामीणों को अपने पक्ष में करने लगभग सफल हुए।
अब ” बस्तर ” बदतर हो चला है। एक तरफ नक्सलियों की लातार गिरफ्तारी हो रही है वहीं दूसरी तरफ मानवाधिकार की आड़ में हिंसकों को प्रश्रय दिया जा रहा है। प्रश्न यह उठता है कि कथित बुद्धिजीवी माओवादियों को यह क्यों नहीं समझाते कि जब आप नेपाल कंबोडिया में हिंसा त्याग प्रजातांत्रिक व्यवस्था को अपना सकते हैं तो भारत में क्यों नहीं? जरूरत यह है कि गांवों में ग्रामीणों के बीच बैठ उनकी बुनियादी समस्याओं और आवश्यकताओं का त्वरित निराकरण किया जाए।
यह बात स्पष्ट है कि छोटे- छोटे विकास कार्यों के लिए बड़ी- बड़ी राशि का बजट तैयार किया जाता है और आधी राशि में जैसे तैसे काम निपटा कर शेष राशि अधिकारियों से लेकर नक्सलियों में विभिन्न माध्यमों से बँट रही है इसलिए सभी ने आंखें मूंद रखी हैं।
भाकपा बस्तर के आदिवासियों को जल- जंगल – जमीन का हक दिलाने का लालच दिखा, बार – बार शहरों में रैलियां और सभा में बुलाते आए हैं। यह पार्टी मंच से नक्सली हिंसा का विरोध करती है। क्या वे बस्तर को हिंसा मुक्त कराने के उद्देश्य से कभी उन्हीं ग्रामीणों की विशाल रैली नक्सलियों के खिलाफ निकलवा सकते हैं? कुल मिलाकर सभी अभी भी आदिवासियों को दरिद्रता के गर्त में रखना चाहते हैं।
बस्तर का आदिवासी सैकड़ों वर्षो से कानून का सम्मान करता आया है। कुछ साल पहले तक वह सरकारी फरमान को बड़ी ही सजगता से बांस के भीतर सुरक्षित रखता था और समयानुसार उसे लेकर न्यायालय, तहसील आदि कार्यालय पहुंच जाता था। आज वही आदिवासी लोकतंत्र के ” सेवा केन्द्रों ” के बदले प्रजातंत्र को नहीं मानने वालों के चौखट में क्यों जा रहे हैं? यह यक्ष प्रश्न नई पीढ़ी के सामने तन कर खड़ा है।
हेमंत कश्यप, वरिष्ठ पत्रकार जगदलपुर