कलशयात्रा के साथ हुआ श्रीमद्भागवत कथा का शुभारंभ :आचार्य हरिकृष्ण महराज के मुखारबिंद से

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कलशयात्रा के साथ हुआ श्रीमद्भागवत कथा का शुभारंभ :आचार्य हरिकृष्ण महराज के मुखारबिंद से

भुवन वर्मा बलौदाबाजार 19 जनवरी 2021

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

बलौदाबाजार — भगवान श्रीकृष्ण एवं राधारानी की अहैतु कृपा से बलौदाबाजार में स्व० चतुरसिंह वर्मा के स्मृति में 20 जनवरी से 28 जनवरी पर्यन्त पं० श्री हरिकृष्ण महाराज जी के मुखारविंद से परम पवित्र , परम पावन संगीतमय श्रीमद्भागवत महापुराण ज्ञानयज्ञ कथा आयोजित है जिसके उपाचार्य पं० श्री शुभम कृष्ण जी महाराज और मुख्य यजमान दिनेश्वरी हीरेन्द्र कुमार वर्मा हैं। इस कथा के सहप्रायोजक मासिक पत्रिका अस्मिता और स्वाभिमान परिवार है। आज इस मंगलकारी कल्याणमयी ज्ञानयज्ञ कथा का शुभारंभ कलशयात्रा के साथ हुआ। यह कथा प्रतिदिन दोपहर 12:00 बजे से शाम 05:30 बजे तक होगी। कथा आयोजक ने सभी श्रद्धालुओं को कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करते हुये कथा में शामिल होने की अपील की है। आज कलश यात्रा तत्पश्चात कथा मंडप में वेदिकापूजन एवं देव आवाहन के साथ कथा की शुरुआत हुई। प्रथम दिवस व्यासपीठ से पं० हरिकृष्ण महाराज जी ने श्रद्धालुओं को गोकर्ण की कथा सुनायी। महाराज श्री ने बताया कि प्राचीन समय में दक्षिण भारत की तुंगभद्रा नदी के तट पर एक नगर में सभी वेदों में पारंगत आत्मदेव और उनकी पत्नी धुन्धुली रहते थे। धुन्धुली बहुत ही सुन्दर लेकिन स्वभाव से क्रूर और झगडालू थी। घर में सब प्रकार का सुख था लेकिन वे संतान सुख से वंचित थे। आत्मदेव इसी बात से दु:खी होकर अपने प्राण त्यागने के लिये वह वन में चले गये। प्राण त्यागने को तत्पर इस पर जैसे ही सन्यासी की नजर पड़ी , तब उन्होंने इसका कारण पूछा। आत्मदेव ने बताया कि वे संतानहीनता के कारण प्राण त्यागने पर विवश हैं। अनेक प्रकार से समझाये जाने पर भी जब आत्मदेव नही माने तो सन्यासी ने अपने झोली से फल निकालकर आत्मदेव को देते हुये कहा कि तुम यह फल अपनी पत्नी को खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा। आत्मदेव वह फल लाकर अपनी पत्नी को दे देता है लेकिन उसकी पत्नी वह मन ही मन सोचती है कि यदि मैंने ये फल खा लिया और गर्भ रह गया तो मुझसे खाया नहीं जायेगा और अनेकों प्रकार के कष्ट भी सहना पड़ेगा। आत्मदेव के कहने पर वह फल तो रख लेती है लेकिन खाती नहीं है। यह सारा किस्सा वह अपने बहन को सुनाती है। बहन उससे कहती है कि- मेरे पेट में बच्चा है, प्रसव होने पर वह बालक मैं तुम्हे दे दूंँगी, तब तक तुम गर्भवती के समान घर में रहो। मैं कह दूंँगी, मेरा बच्चा मर गया और तू ये फल गाय को खिला दे। आत्मदेव की पत्नी अपनी बहन की बात मानकर ऐसा ही करती है। उस फल को वह गाय को खिला देती है। समय व्यतीत होने पर उसकी बहन ने बच्चा लाकर धुन्धुली को दे दिया। पुत्र हुआ है यह सुनकर आत्मदेव को बड़ा आनंद हुआ। धुन्धुली ने अपने बच्चे का नाम धुंधकारी रखा। इसके बाद एक दिन आत्मदेव सुबह गाय को चारा डालने गया तो उसने देखा कि गाय के पास एक बच्चा है जो कि मनुष्याकार है, लेकिन बस उसके कान ही गाय के समान थे। उसे देखकर वह आश्चर्य में पड़ जाता है। हालांकि उसे बड़ा आनंद भी होता है। वह उस बच्चे को उठाकर घर में ले जाता है , उसका नाम वह गोकर्ण रखता है। अब उसके घर दो बालक हो जाते हैं , एक धुंधकारी और दूसरा गोकर्ण। गोकर्ण बड़ा होकर विद्वान पंडित और ज्ञानी निकलता है जबकि धुंधकारी दुष्ट, नशेड़ी और क्रोधी, चोर, व्याभिचारी और माता पिता को सताने वाला निकलता है। एक दिन वह पिता को मार मार कर घर से बहार निकाल देता है। तभी गोकर्ण पिताजी को वैराग्य का उपदेश देता है और कहता है कि आप सभी छोड़कर प्रभु की शरण में वन चले जायें और भगवाश भजन करें। भगवत भजन ही सबसे बड़ा धर्म है। गो से उत्पन्न पुत्र गोकर्ण की बात मानकर आत्मदेव वन चले जाते हैं। बाद में उसकी पत्नी धुन्धली को धुंधकारी सताने लगता है तो वह कुयें में कूदकर आत्महत्या कर लेती है।अब धुंधकारी वेश्याओं के साथ रहने लगता है , वे उसे अपने तरीके से संचालित करती थी। धुंधकारी उन वेश्याओं के लिये ही धन जुटाने लगता है , वह उनके लिये डाका डालता और चोरी करता है। बाद में वे वेश्यायें सोचने लगती है कि यदि एक दिन यह पकड़ा गया तो राजा इसके साथ हमें भी दंड देगा। यह सोचकर वह वेश्यायें सोते हुए धुंधकारी को रस्सियों से उसका गला दबाने का प्रयास करती है। जब वह गला दबाने से भी नहीं मरता है तो वे सभी मिलकर उसे दहकते अंगारों में डाल देती है , जिससे वह तड़फतड़फ कर मर जाता है। मरने के बाद धुंधकारी अपने कुकर्मो के कारण एक प्रेत बन जाता है। प्रेत बनने के बाद भूख और प्यास से वह व्याकुल हो जाता है। रह रहकर वह चिल्लाता भी रहता है क्योंकि उसे अंगारों से जलाया गया था इसीलिए उसकी अनुभूति उसे अभी भी सताती रहती है। उसे लगता है कि अभी भी मेरा शरीर जल रहा है। एक दिन अपने ही घर में अपने भाई गोकर्ण को सोया हुआ देखकर धुंधकारी खुश हो जाता है और आवाज लगाता है। गोकर्ण यह आवाज सुनकर पूछता है कि तुम कौन हो ? धुंधकारी कहता है, मैं तुम्हारा भाई हूंँ, मेरे कुकर्मो की गिनती नहीं की जा सकती, इसी से में प्रेत-योनी में पड़ा ये दुर्दशा भोग रहा हूंँ, भाई। तुम दया करके मुझे इस योनी से छुड़ाओ। तब गोकर्ण व्यासपीठ पर बैठकर अपने भाई धुंधकारी के मुक्ति निमित्त श्रीमद्भागवत कथा करते हैं। इस कथा पांडाल में प्रेत बना धुंधकारी सात गांँठ के बांँस पर वायु रूप में बैठकर कथा सुनता है। कथा विश्राम के पश्चात सबके देखते-देखते उस बांँस की सातों गांँठें तड़-तड़ करती फट जाती हैं और कथा सुनने से पवित्र होकर धुंधकारी एक दिव्य रूप धारण करके गोकर्ण के सामने प्रकट हो जाता है। वह व्यासपीठ पर विराजमान अपने भाई गोकर्ण को प्रणाम करता है। तभी बैकुण्ठवासी पार्षदों के सहित एक विमान उतरता है और सबके देखते ही धुंधकारी विमान पर चढ़कर जाने लगता है।भगवान के पार्षदों को देखकर उनसे गोकर्ण ने कहा, भगवान के प्रिय पार्षदों यहांँ हमारे अनेकों शुद्ध हृदय श्रोतागण है उन सबके लिये एक साथ बहुत से विमान क्यों नहीं लाये ? यहांँ सभी ने समान रूप से कथा सुनी है फिर फल में इस प्रकार का भेद क्यों ? भगवान के पार्षदों ने कहा, इस फल भेद का कारण इनमें श्रवण का भेद है श्रवण सबने समानरूप से ही किया किन्तु इसके जैसा मनन नहीं किया। इस प्रेत ने सात दिन तक सुने हुये विषय का स्थिरचित्त से खूब मनन भी करता रहा , यह कहकर वे सब पार्षद बैकुंठ को चले गये।

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