गोत्र : भारतीयों की विशिष्ट पहचान- राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी महेश्वर में
( छत्तीसगढ़ की डॉ. अलका यतींद्र यादव ने कोरवा जनजाति के बारे में शोध पत्र पढ़ा)
महेश्वर। लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर के 300 जयंती वर्ष के अवसर पर महेश्वर में नीमाड़ उत्सव के दौरान गोत्र : उद्भव, मान्यता और प्रतीक विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई।
जनजातीय लोककला एवं बोली विकास अकादमी, भोपाल के निदेशक श्री धर्मेंद्र पारे के संयोजन में इस संगोष्ठी भारतीय गोत्र व्यवस्था के उद्भव और मान्यता पर पूर्वाग्रहों से घिरे तथाकथित आधुनिक समाजों को तमाम सामाजिक कुंठाओं से ऊपर उठकर इस विषय पर नए सिरे से विचार करने का आह्वान किया गया। चौमासा के इसी विषय पर संपादित आलेखों के विशेषांक का लोकार्पण भी हुआ।
उदघाटन अवसर पर प्रसिद्ध संत स्वामी समानन्द गिरि ने गीता और अन्य ग्रंथों के आलोक में वर्ण, गोत्र और समाज व्यवस्था की शुद्धि को रेखांकित किया और इस शुद्धि की मान्यता को वैज्ञानिक बताया। डॉ. पारे ने गोत्र व्यवस्था पर विचार को विश्व के लिए महत्वपूर्ण कहा।
भारतीय विद्या के अध्येता डॉ. श्रीकृष्ण “जुगनू” ने गोत्र परिकल्पना को ऋषियों का बड़ा अवदान कहा जो संपूर्ण उप महाद्वीप में शुद्धि, संस्कार और श्राद्ध के संकल्प के रूप में स्मरणीय है। वर्ण जातियों, गोत्र, प्रवर आदि सामाजिक पहचान ही नहीं, समूह और संगठनों के सूचक और अपनत्व की पहचान है। दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान, भोपाल के निदेशक डॉ. मुकेश कुमार मिश्रा ने गोत्र व्यवस्था को भारतीय समाज के सुरक्षा दुर्ग के रूप में रेखांकित किया।
संगोष्ठी में बिलासपुर की शोध अध्येता डॉ. अलका यादव ने छत्तीसगढ़ में अपने क्षेत्र की कोरवा जनजातीय गोत्र व्यवस्था और उनके संस्कार तथा श्राद्ध आदि की जानकारी दी और कहा कि यह व्यवस्था हमारे सामान्य स्तर पर बहुत सम्मान के साथ नियमित है और सभी को सर्व स्तर पर मान्य रही है। यह जाति अपनी विशिष्ट मान्यताओं के लिए उल्लेखनीय है।
तीन दिवसीय इस संगोष्ठी में नागर, आरण्यक एवं घुमंतू समाजों की गोत्र परंपरा पर अध्येताओं ने विस्तृत जानकारी प्रदान की। विशेषकर भील, गोंड, यदुवंशी, बैगा, भैना, कुचबंधिया, वाघरी, पारधी, कोरवा, बेड़िया, खरवार, बंजारा, भारिया, सहरिया, भिलाला, कोरकू, बहुरूपिया, कायस्थ, भगोरिया, सिकलीगर, गुज्जर, बरवाला, स्वर्णकार, भारद्वाज, अग्रवाल वैश्य समाजों की गोत्र परंपरा पर महत्वपूर्ण, शोध सर्वेक्षण आधारित जानकारियां साझा की। सभी शोध पत्र गंभीर विमर्श के केंद्र में भी रहे।
विद्वानों में ब्रजेन्द्र सिंहल (नई दिल्ली), प्रवीन कुमार (धर्मशाला), उपेन्द्र देव पाण्डेय (वाराणसी), डॉ. सीमा सूर्यवंशी (छिंदवाड़ा), डॉ. अनिता सोनी (लखनऊ), डॉ. नेत्रा रावणकर (उज्जैन), माधव शरण पाराशर (डिंडोरी), शिवम शर्मा (छतरपुर), करण सिंह (पिछोर), डॉ. शोभासिंह (गुना), प्रकाशचंद्र कसेरा (जौनपुर), डॉ. योग्यता भार्गव (अशोकनगर), गोपी सोनी (कबीरधाम), डॉ. श्रीकृष्ण काकड़े (अकोला), डॉ. भुवनेश्वर दूबे (मीरजापुर), इन्द्र नारायण ठाकुर (नई दिल्ली) डॉ. पूजा सक्सेना (भोपाल), डॉ. विभा ठाकुर (नई दिल्ली), डॉ. लक्ष्मीकांत चंदेला (रीवा), डॉ. टीकमणि पटवारी (छिंदवाड़ा), डॉ. अनुपमा श्रीवास्तव (ग्वालियर), डॉ. सत्या सोनी (उमरिया), डॉ. दीपा कुचेकर (नाशिक), स्वाति आनंद (बिलासपुर), उमा मिश्रा (जयपुर) श्री गणेश कुमार तुमड़ाम (पांडुरना), डॉ. कमला नरवरिया (भिंड), डॉ. तरुण दांगौड़े (खंडवा), डॉ. अलका यादव (बिलासपुर), सुश्री काजल (बागपत), डॉ. अर्पणा बादल (भोपाल), डॉ. खेमराज आर्य (श्योपुर), अनिश कुमार सिंह (सोनभद्र), छोगालाल कुमरावत (खरगोन), डॉ. बसोरी लाल इनवाती (सिवक डॉ. अल्पना त्रिवेद्वी (भोपाल), श्री राम कुमार वर्मा (दुर्ग), अरुण कुमार शुक्ला (इंदौर), पीसीलाल यादव (खैरागढ़), ज्ञानेश चौबे (हरदा), नीलिमा गुर्जर (भोपाल), मुकेश कुमार जैन (बाड़मेर) श्री भावेश वी. जाधव (सूरत), डॉ. आर. पी. शाक्य (भोपाल) ने शोधपत्र प्रस्तुत किए।
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