रँगमंच परिवार द्वारा कल्याण कॉलेज के डिजिटल हॉल में राज्यस्तरीय रंगचर्चा का आयोजन : चर्चा में बड़ी संख्या में रंगमंच के कलाकार ,नाट्य निर्देशक,और नाट्यप्रशंसक रहे मौजूद

0

रँगमंच परिवार द्वारा कल्याण कॉलेज के डिजिटल हॉल में राज्यस्तरीय रंगचर्चा का आयोजन : चर्चा में बड़ी संख्या में रंगमंच के कलाकार ,नाट्य निर्देशक,और नाट्यप्रशंसक रहे मौजूद

भुवन वर्मा बिलासपुर 21 मार्च 2022

भिलाई । कल्याण कॉलेज भिलाई में हुआ रँगचर्चा का आयोजन
सप्ताह भर पहले का एक आयोजन जिसका रंग होली के रंगों से भी चटख था। जो होली के पहले आयोजित थी पर उसका रंग होली के बाद भी न उतरा न फीका पड़ा।

दुर्ग-भिलाई रँगमंच परिवार द्वारा 13 मार्च 2022 को शाम 4 बजे से कल्याण कॉलेज के डिजिटल हॉल में राज्यस्तरीय रंगचर्चा का आयोजन किया गया जो सफल रहा।
चर्चा में बड़ी संख्या में रंगमंच के कलाकार ,नाट्य निर्देशक,और नाट्यप्रशंसक मौजूद थे। आमंत्रित वक्ता श्री राजेश श्रीवास्तव,श्री सन्तोषजैन,श्री शरद श्रीवास्तव,श्री हीरा मानिकपुरी,श्री राजकुमार सोनी,योगमिश्रा,अख्तर अली,डॉ.सोनाली चक्रवर्ती,डॉ.योगेंद्र चौबे के अलावा प्रसिद्ध कवि शरद कोकास,रंगकर्मी मणिमय मुखर्जी,सुचिता मुखर्जी,गुलाम हैदर मंसूरी,अखिलेश वर्मा,चारु श्रीवास्तव,त्रिलोक तिवारी,विनायक अग्रवाल,हरीसेन,राकेश बम्बोई,उत्तम निर्मलकर,लक्ष्मी नारायण,पवन गुप्ता,आदि उपस्थित थे।
चर्चा की शुरुवात ‘सूत्रधार थियेटर अकादमी’ के अध्यक्ष श्री विभाष उपाध्याय जी ने की।संचालन योगेश पांडे जी ने किया तथा आयोजन में सहयोग हरजिंदर सिंह भाटिया एवं गोपाल शर्मा ने सहयोग दिया।
वक्ताओं ने दिए गए विषय मे महत्वपूर्ण सारगर्भित व्याख्यान दिए।
यह गोष्ठी-मस्त, दृष्टिकोंण, मुट्ठी, कोरस, इप्टा, कालांजलि, सूत्रधार, सत्यम नाट्यमंच, बंगीय नाट्यपरिषद, स्वयमसिद्धा, प्रवास आँध्रा प्रजा नाट्य मण्डली, क्षितिज रंग शिविर,LITTL EEFORT नाट्य समूह का संयुक्त आयोजन था।

संचालक महोदय ने परिचय के साथ-साथ प्रदत्त विषय की भी जानकारी दी। सर्वप्रथम “राजेश श्रीवास्तव” जी ने अपने विषय ‘रंगमंच और सरोकार’ पर बोलते हुई कहा कि- “रंगमंच की शुरुवात मनोरंजन से हुई पर कालांतर में उसमें फुहड़ता ने प्रवेश कर लिया। पारसी रंगमंच जरूर इस बीच व्यवसायिक बना रहा। रंगकर्मी समाज से जुड़कर काम करते हैं। बंगाल के अकाल से लड़ने के लिये उन्होंने ‘भूखा है बंगाल रे साथी…’ खेलकर मदद की और इसके साथ ही इप्टा की स्थापना हुई। विभाष के निर्देशन में हमनें औरत ,अपहरण भाईचारे आदि नाटकों का लगातार मंचन किया और सामाजिक एकता कायम रखने में कामयब रहे। नाट्यकर्मी हर विधा के संपर्क में रहते हैं इसलिये संवेदनशील होते हैं।
कोरोना से उपजी समाजिक दूरी के कारण बनी स्थिती दुखी करती है।हमें मिलकर दिवंगत साथियों के घर जाना चाहिये।

क्षितिज रंग शिविर दुर्ग और इरा फिल्म्स के संस्थापक अंचल के प्रसिद्ध फिल्मकार “सन्तोषजैन जी” ने अपने विषय “रंगमंच और सिनेमा” पर बोलते हुये कहा- रिहर्सल और मंचन के लिये जगह की अनुपलब्धता ही नुक्कड़ नाटकों का कारण बनीं। भिलाई की आबोहवा मेरे लिये महत्वपूर्ण है ,यह मुझ पर भूलनकांदा सा असर करती है। नाटकों और फिल्मों दोनो में ही मेहनत है।नाटक में पागलपन है समय की पांबदी है तालियां ही इसका वसूल हैं। फिल्मों में पैसा है। फिल्मों और नाटक दोनो में ही अब दर्शकों की कमी है।
दोनो में एक बड़ा फर्क है- मां सर को छूकर आशीर्वाद देती है,तो जो महसूस होता है वह रंगमंच का भाव है जबकि चित्र देखकर जो अनुभव होता है वह फिल्मों का भाव है। दोनो में माध्यम का फर्क है। रंगमंच में दर्शक के सामने सीधे प्रस्तुति की कसौटी होती है फिल्मों में रीटेक के अवसर होते हैं।
बहुभाषी नाटक प्रतियोगिता में प्रथम विजेता रहे “शरद श्रीवास्तव” जी ने अपने विषय “वर्तमान समय में रंगमंच” पर अपनी बात 28 साल पहले दुर्ग में खेले गए एक नाटक के संवाद से शुरू करते हुए कहा- सत्ता , तालाब से निकली हुई भैंस के ऊपर लगी कीचड़ की तरह है जिसे कोई ऐरा-गैरा चरवाहा नही हांक सकता।वर्तमान में रंगमंच के सामने की अनेक समस्याओं पर प्रकाश डालते हुई आपने कहा- रंगकर्म बदहाली से गुजर रहा है। रंगकर्मी प्रयासरत हैं कि हम कुछ अच्छा कर सकें। नाटक नही लिखे जा रहे। कलाकारों का स्क्रीन की तरफ खिंचाव, फिल्मों के लिये दौड़। और एक फ़िल्म का सालों साल चलना जबकि नाटकों में तीन-तीन महीने की मेहनत के बाद एक दिन का मंचन ।नाटक के लिये दर्शक पकड़ कर लाना पड़ता है दर्शकों और रिहर्सल्स के लिये स्थान नही होता,कलाकारों का पेशेवर होना,नाटकों में पैसा न होना, इसके अलावा नाटकों की अगले दिन अखबारों में छपने वाली समीक्षा नाटक को नही समझने वाला पत्रकार लिखता है।दर्शक फिल्मों और अन्य माध्यमों से तुलना करने पर मंच में कल्पना अनुरूप प्रदर्शन और मंच नही पाता।
एनएसडी से प्रशिक्षित अभिनेता और निर्देशक रंगमंच के कलाकार “हीरा मानिकपुरी” ने कहा- पहले जरुरतें कम थीं।आज के युवा की जरूरतें ज्यादा हैं।परिवार और समाज को उनसे उम्मीदे ज्यादा है इसलिये उनपर प्रेशर भी ज्यादा है। शीध्र प्रतिफल पाने की चाहत युवा वर्ग में है। यदि सोर्स ऑफ अर्निंग अलग हो तो बात और है वरना यदि नाटक में ही भविष्य बनाना है तो लक्ष्य के लिये जुटकर पूरी तैयारी करनी होगी। समय के साथ दर्शकों की पसन्द के हिसाब से नाटकों में बदलाव करने होंगे।नाटक अपने बलबूते पर किया जाता है।जो सच मे रंगमंच करना चाहते हैं उनके लिये बहुत ऑप्शन हैं।

पत्रकार,लेखक कवि नाटककार,अभिनय में प्रेरक व्यक्तित्व “राजकुमार सोनी” जी ने अपने विषय हमारा समय और रंगमंच पर कहा- जिस सरस्वती की चित्र की हमने स्तुति की उस पर लिखा फिरोजा अली जाफ़र का नाम साबित करता है कि सरस्वती के ज्ञान पर किसी खास रंग का या किसी सम्प्रदाय का एकाधिकार नही है। मैं इस समय जीवन के बड़े रंगमंच के कलाकारों का साक्षात दर्शन कर रहा हूँ और उनके झूठ और पाखंड का चश्मदीद गवाह हूँ जिन्होंने लोंगों के हाथों में मोबाइल और रिमोट देकर उन्हें म्यूट कर रखा है।
नाट्य अभिनेता और निर्देशक “योग मिश्रा” जी ने ‘पश्चिम का रंगमंच बनाम नाट्यशास्त्र” विषय पर बहुत विस्तार से प्रकाश डालते हुए हबीब तनवीर जी के इस विषय मे किये गये शोध का उल्लेख करते हुए उनकी पंक्तियों का वाचन किया । और बताया कि किस प्रकार पश्चिम के रंगमंच से हमारा संस्कृत नाट्य अधिक समृद्ध और उन्नत था । विदेशी हमलावरों के आने के बाद ही कलाकार टूटकर जहां भी गए वहां लोकमंचों को जोड़कर समृद्व किया इसलिये विभिन्नता होते हुए भी उनमें कुछ समानताएं भी परिलक्षित होती हैं।
प्रसिद्ध नाटककार, व्यंग्यकार और स्तम्भकार “अख्तर अली जी” ने अपने विषय “निर्देशक और लेखक का समीकरण” पर बोलते हुये कहा अब तक बहुत से नाटक लिखे गये और लगातार नाटक लिखे जा रहे हैं। पर रंगमंच के गहन अध्ययन के बाद लिखा गया नाटक ही मंचन योग्य होता है।जैसे शरद जोशी लिखित “एक था गधा” हर दृष्टि से श्रेष्ठ और मंचन योग्य था।नरेंद्रकोहली,प्रताप सहगल,अजहर आलम,गिरीश पंकज हरिवंश राय बच्चन आदि अनेकों लेखकों ने बहुत अच्छे अच्छे नाटक लिखे पर रंगमंचीय तकनीकी के अभाव के कारण उन नाटकों का मंचन सफ़लता पूर्वक नही हो सका। नाटक रूपांतरण को दोयम दर्जे का माना जाना,नाटक की किताबों का न खरीदा जाना,नाटककार का नाम गायब कर दिया जाना जैसी कई बातेँ नाटक लिखने वालों को हतोत्साहित करती और उन्हें निराशा देती हैं। कहानी का प्रकाशन महत्वपूर्ण होता है। वहीं नाटकों के प्रकाशन की बजाय उनके मंचन का महत्व होता है।

विवाहित महिलाओं के एकमात्र मंच “स्वयमसिद्धा” की निर्देशक “डॉक्टर सोनाली चक्रवर्ती” जी ने प्रदत्त विषय “रगमंच और महिलाओं की चुनौतियाँ” पर अपने विचार रखते हुए कहा कि दूरदर्शन की कृपा से हमने अच्छे कार्यक्रम देखे जिसने हमारी बौद्धिक क्षमता पर सकारात्मक प्रभाव डाला। हमारी क्षमताओं पर “विवाहित होने के बावजूद” का लटकता प्रश्नचिन्ह
ऐसा महसूस कराता है विवाह हो जाना जीवन की संभावनाओं का अंत हो। इस ग्रुप की प्रेरणा मुझे घर परिवार और सखियों से,उनके जीवन से मिली। महिलाओं को जोड़ने में बहुत मुश्क़िलें आईं क्योंकि उनकी जिम्मेदारियां अधिक होती हैं। पर जब महिलाओं से नाटक खेलने की बात पूछी गई हर एक महिला का कहना था कि उन्हें अभिनय अच्छा लगता है। पर जब घरवालों से पूछने की बात आई।उन्हें
पहले पिता ,फिर पति और अब बेटों से भी पूछना होता है। शुरुवात में उन्हें ताने और उलाहने ही मिले, सब विरोधों के वावजूद उनमे से कुछ ये कहकर मंच पर उतरी की जीवन भर हमनें अभिनय ही तो किया है, अब मंच पर भी सही। अब उन्हें परिवार से भी प्रोत्साहन और सराहना मिल रही है। समाज भी अब हमारी प्रतिभाओं को महत्व दे रहा है आज की गोष्ठी में हमारे मंच को शामिल करना ही इस बात का प्रमाण है।
अंतिम और प्रभावी वक्ता के रूप में लोकप्रिय और प्रशंसित फ़िल्म ‘गाँजा कली’ के निर्देशक “डॉ. योगेंद्र चौबे जी” ने अपने विषय ‘रंगकर्म शून्य से आजतक’ पर अपने विचार रखते हुए कहा कला स्वान्तः सुखाय हो सकता है पर नाटक स्वान्तः सुखाय नही हो सकता। नाटक अभव्यक्ति का सबसे प्राचीन माध्यम है।जिसकी शुरुवात अनुष्ठानों से हुई नाटक श्रव्य काव्य है।पश्चिम के नाटक और हमारे नाटकों में तुलना करने पर हम पाते हैं कि जहां पश्चिम के नाटकों में संघर्ष और द्वन्द है।वहीं हमारे पास इसके साथ रस और भाव भी है।भाव कर्ता(कलाकार) के अंदर और रस दर्शक के भीतर आता है। जब देश पर आक्रमण शुरू हुये नाटकों की दुर्दशा शुरू हुई। दर्शक मंच पर नाटकों के दोहराव की बजाय नया देखना चाहते हैं। नाटकों को वर्तमान के संदर्भ से जोड़ना होगा।
चर्चाओं के बाद वक्ताओं के साथ हुये प्रश्नोत्तर में डॉ,नीता तिवारी ने पूछा कि -वर्तमान में रंगमंच की समस्याएँ सबने गिनाई पर निराकरण का कोई उपाय या कोई सकतात्मक पहल की बात नही की गई। हर तरह के कलाकार जब मोबाइल के माध्यम से सीधे दर्शकों तक पहुंच बना रहे हैं तो रंगमंच और नाटकों में भी ऐसी पहल होनी चाहिए।

चर्चा के समापन पर धन्यवाद ज्ञापित करते हुये विभाष उपाध्याय जी ने आगामी आयोजन 3 अप्रैल के नाट्य समारोह के विषय मे बताया जिसके लिये नाट्य संस्थाओं की प्रतिभागी टीमों का रजिस्ट्रेशन किया जा रहा है।
इतनी शनदार चर्चाओं के बाद अब तो आगामी आयोजन के इंतज़ार में बेसब्र ही हुआ जा सकता है।
रँगचर्चा जैसे जरूरी आयोजन होते रहेंगे इसी आशा में आयोजकों और अतिथि वक्ताओं को इस आयोजन की सफलता के लिये बधाइयाँ और शुभकामनाएं।

श्रीमती मेनका वर्मा भिलाई की रिपोर्ट,,,,

About The Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *