सनातन सर्वेश्वर जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण – पुरी शंकराचार्य

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सनातन सर्वेश्वर जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण – पुरी शंकराचार्य

भुवन वर्मा बिलासपुर 07 फ़रवरी 2021

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

जगन्नाथपुरी — ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज जी एक ही भूतात्मा सब भूतों में सन्निहित है इस तथ्य को ख्यापित करते हुये संकेत करते हैं कि पञ्च कृत्यों के निर्वाहक पञ्चदेवों का आदित्य , वसु , रूद्र , मरूत् और विश्वदेव से तादात्म्य है। ब्रह्मा और आदित्य , विष्णु और वसु , रूद्र और शिव , मरूत् और शक्ति , गणेश और विश्वदेव का नाम तादात्म्य है । आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, विश्वदेव और मरुत् अथवा इन्द्र और प्रजापति मिलकर तैंतीस देव सिद्ध होते हैं, इन तैंतीस देवों को तैंतीस कोटि देव कहा जाता है, कोटि का अर्थ गण या प्रकार है । सत्ययुग में सब एक परमात्मदेव को ही भजनीय समझकर उनमें ही चित्त रमाये रहते थे। एकमात्र उन्हीं के प्रणवप्रधान मन्त्र का जप करते थे । विधिसम्मत क्रिया का उन्हीं के लिये सम्पादनकर उन्हीं के प्रति उसे समर्पित करते थे ।

धर्म और ब्रह्म की सिद्धि में एकमात्र वेद को ही प्रमाण मानते हुये अपने– अपने वर्ण और आश्रम के अनुरूप विविध धर्मों का अनुष्ठान करते थे । ऐसा होने पर भी वेदसम्मत सनातन धर्म का ही अनुगमन करने वाले थे । सनातन सर्वेश्वर जगत् का निमित्त ही नहीं, अपितु उपादान कारण भी है। अभिप्राय यह है कि वह यान्त्रिक के तुल्य निर्माता और लोह, मृत्तकादि धातुओं के तुल्य उपादान है। योगबल से विनिर्मित योगव्याघ्र के अभिन्न निमित्तोपादानकारण योगी के तुल्य सनातन सर्वेश्वर जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण है । वह बहुभवनरूपा सर्वभवन सामर्थ्य सम्पन्न और बहुकरण — सामर्थ्य सम्पन्न सर्वातीत तथा सर्वरुप — सर्वात्मा है । विभिन्न श्रुतियों के अनुसार सद्रूप परमात्मा कार्यप्रपञ्च का निमित्त कारण है तथा बहुभवन सामर्थ्य सम्पन्न सद्रूप ब्रह्म कार्यप्रपञ्च का उपादान कारण है । अत एव वेदान्तदर्शन के अनुसार जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण है । इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा और अनन्त — संज्ञक दश दिक्पाल उसकी विभूतिरूप स्फूर्ति हैं । जिस प्रकार एक दीप से सैकड़ों दीप जला लिये जाते हैं, वैसे ही एक ही परमात्मा यत्र — तत्र — सर्वत्र सर्वरूपों में संकल्पयोग से विलसित होता है । ऐसा निश्चय करके ज्ञानी पुरुष नि:सन्देह सर्व रूपों को एक सर्वेश्वर से ही उल्लसित और उद्भासित देखता है। नि:सन्देह वही परमात्मा विष्णु, मित्र,, वरुण, अग्नि , प्रजापति, धाता, प्रभु, सर्वव्यापी, सर्वभूतहृदय तथा महान आत्मरूप से प्रकाशित है ।

योग, ज्ञान, सांख्य, विविध विद्या, शिल्पाकृतियों कर्म, वेद, शास्त्र और विज्ञान — ये सब सर्वगत, सर्वेश्वर विष्णु से उत्पन्न हुये हैं। वे समस्त भूत के भोक्ता और अविनाशी विष्णु ही एक ऐसे हैं, जो अनेक रूपों में विभक्त होकर विविध प्राणिविशेषों के विविध रूपों को धारण कर रहे हैं तथा त्रिभुवन में व्याप्त होकर सबको भोग रहे हैं । निसन्देह एक ही भूतात्मा सब भूतों में सन्निहित है । वह चन्द्रवत् एक होता हुआ भी जलचन्द्रवत् उपाधियोग से विविध परिलक्षित होता है । उनमें एकत्व भी है तथा महत्व भी ; अतः एकमात्र वही पुरूष माने गये हैं । एक सनातन श्रीहरि ही महापुरुष नाम धारण करते हैं ।

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