पाकिस्तान से भागकर बस्तर पहुंचे बांग्लादेशी शरणार्थियों की हकीकत : भारत नहीं होता तो हम भी नहीं होते

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पाकिस्तान से भागकर बस्तर पहुंचे बांग्लादेशी शरणार्थियों की हकीकत : भारत नहीं होता तो हम भी नहीं होते

भुवन वर्मा बिलासपुर 6 जनवरी 2021

56 वर्षों से सहेज कर रखे हैं पुरानी तस्वीर

हेमंत कश्यप जगदलपुर की रिपोर्ट

जगदलपुर। 16 दिसंबर 1964 को लाखों पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था और बांग्लादेश की आजादी के लिए प्रारंभ हुए युद्ध पर विराम लगा। यह तारीख आते ही 56 वर्ष पहले पूर्वी पाकिस्तान से भागकर बस्तर पहुंचे बांग्लादेशी शरणार्थियों के घाव हरे हो जाते हैं। इनका कहना है कि भारत नहीं होता तो शायद हम भी नहीं होते।दंगाइयों ने हजारों को मौत के घाट उतारा था दंगाइयों ने बरई परिवार के 41 रिश्तेदारों को 1964 में मारकर कुएं में फेंक दिया था। परिवार के जो सदस्य बच गए वे किसी तरह माना पहुंचे और सामूहिक फोटो खिंचवाया। यह 56 वर्ष पहले बिछड़ कर मिले बरई परिवार के सदस्यों की यादगार तस्वीर है। ऐसी कई तस्वीरें हैं, जो 1964 में हुए दंगे की याद बस्तर में आश्रय लिए हजारों बंग बंधुओं को दिलाते हैं।

शहर में एफसीआई गोदाम के पीछे बरई परिवार वर्ष 1973 से निवासरत है। वे मूलतः बरीसूर थाना रानीगंज जिला ढाका के निवासी थे। वर्ष 1964 के दंगे में पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले लगभग सभी हिंदुओं ने संपत्ति के अलावा अपने रिश्तेदारों को भी खोया। उन्हीं पीड़ितों में बरई परिवार भी है। इस परिवार की बेबी मंडल, पारूल बला मंडल, श्यामचन्द्र बरई, उमानंद बरई बताते हैं कि दंगाइयों ने बूढ़ी गंगा नदी किनारे उनके 41 रिश्तेदारों को काटकर कुएं में फेंक दिया था। दंगाइयों ने सबसे ज्यादा रारबाजार, डेमरा, कायतपरा, बागाचार, रघुनाथपुर, नायलबंद, सिद्धेश्वरी बाड़ी, शामपुर, बैजर आदि गांवों में लोगों की हत्या की थी। रिश्तेदारों की हत्या से सभी दहशत में थे। दंगाइयों ने कई बार हम पर भी हमले का प्रयास किया किंतु एक मुसलमान पुलिसकर्मी जैनुलाउद्दीन ने हमें वहां से निकाला और किसी तरह ढाका रेलवे स्टेशन पहुंचाया। वहां से हम सिपालदाह स्टेशन कोलकाता पहुंचे थे। सभी 16 मार्च 1964 को खाली हाथ भारत पहुंचे थे। भारत सरकार ने हमें 10 साल माना कैम्प में रखा और वर्ष 1973 में दंडकारण्य प्रोजेक्ट के तहत जगदलपुर में विस्थापित किया गया। वर्ष 1964- 65 में सभी आठ सदस्य माना से रायपुर पहुंचे और स्मृति बतौर फोटो खिंचवाए थे। यह फोटो हमें 1964 के काले दिनों की याद दिलाता है। बच्चे उनकी तकलीफ को किसी फिल्म के दृश्य की तरह मानते हैं। हम उन्हें यही नसीहत देते हैं कि भारत नहीं होता तो हम नहीं होते, इसलिए भारत के प्रति कृतज्ञ रहना।
1964 में भागकर आए शरणार्थियों को भारत सरकार ने दंडकारण्य प्रोजेक्ट के तहत केंवरामुंडा, धरमपुरा, ओरना कैंप के अलावा पश्चिम बस्तर के परलकोट जंगल, बोरगांव, नारायणपुर, भांसी में बसाया गया है। परलकोट क्षेत्र (पखांजूर-बांदे- कापसी) मिनी बंगाल कहलाता है यहां एक ही नाम के लगभग 143 गांव बसाए गए थे। जो परलकोट विलेज के नाम से चर्चित हैं।1964-65 में आए लगभग सभी बंग बंधुओं के घरों में दंगे के बाद बिछुड़ कर मिले परिजनों की पुरानी तस्वीरें हैं।

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