महानगरों की संरचना यान्त्रिक युग की देन — पुरी शंकराचार्य
महानगरों की संरचना यान्त्रिक युग की देन — पुरी शंकराचार्य
भुवन वर्मा बिलासपुर 16 दिसंबर 2020
अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
जगन्नाथपुरी – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं भगवत्पाद शिवावतार आदि शंकराचार्य महाभाग के चिन्मय करकमलों द्वारा प्रतिष्ठित मान्य चार आम्नाय पीठों में से एक ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरी पीठ के 145 वें श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज सनातन वर्ण व्यवस्था की सर्वकालीन उपयोगिता तथा इससे विमुखता के घातक परिणामों के प्रति सचेत करते हुये संकेत करते हैं कि सनातन वर्णव्यवस्था में जन्म से सबकी जीविका सुरक्षित है तथा वंश परम्परागत जीविकोपार्जन की दक्षता से सम्पन्न जन्म भी जीवीकोपार्जन में उपयोगी है। नीति तथा अध्यात्म समन्वित परम्परा प्राप्त शिक्षातन्त्र के अधीन शासनतन्त्र, शासनतन्त्र के अधीन वाणिज्यतन्त्र और सेवातन्त्र सर्वसुखप्रद है ; जबकि श्रमिक सेवक तन्त्र के अधीन वाणिज्यतन्त्र, वाणिज्य तन्त्र के अधीन शासनतन्त्र तथा शासनतन्त्र के अधीन शिक्षातन्त्र के कारण विप्लवपूर्ण वातावरण और विश्व युद्ध की विभीषिका सुनिश्चित है, अतः वर्णव्यवस्था के उलटफेर के फलस्वरूप सम्प्राप्त तथा सम्भावित विप्लव को निरस्त करने की आवश्यकता है । केवल धन, मान तथा विषयोपभोग के लिये ही विद्या और कला का उपयोग करने वाले व्यक्ति तथा संस्थान धर्म के अवरोधक और धर्मद्रोही मान्य हैं । विकास के नाम पर महानगरों की संरचना यान्त्रिक युग की देन है, जिसके फलस्वरूप गाँव, वन और खनिज पदार्थों का तद्वत् संयुक्त परिवार का विलोप हो रहा है । संयुक्त परिवार के विलोप के कारण सनातन कुलधर्म, वर्णधर्म, आश्रमधर्म, कुलदेवी
कुलदेवता , कुलगुरु , कुलवधू , कुलपुरूष आदि का विलोप सुनिश्चित और परिलक्षित है। शुद्ध मिट्टी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश ; तद्वत् शुद्ध शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और मनोभाव का विलोप महानगरों में परिलक्षित है, जिसके फलस्वरूप दूषित पर्यावरण, घृणित एवं गर्हित जीवन मानवता के लिये अभिशाप सिद्ध हो रहा है । विकास की विश्वस्तर पर उक्त अवधारणा को क्रियान्वित करने के कारण मनुष्य भोजन करने और सन्तान उत्पन्न करने का विचित्र यन्त्र होने लगा है । यान्त्रिक युग में विकास के नाम पर परमात्मा, उनकी शक्ति प्रकृति, प्रकृति के परिकर शुद्ध आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी नामक पञ्चभूत तथा पुण्य पुण्यात्मा पुरुष से सुदूर रहना अनिवार्य है। प्रामाणिक रीति से विचार करने पर यह विकास के नाम पर विनाश को आमन्त्रित करना है। विकास के नाम पर गोवंश, गङ्गादि तथा सती, विप्रादि दिव्य वस्तुओं और व्यक्तियों को विकृत, दूषित, क्षुब्ध तथा विलुप्त करने का प्रकल्प अवश्य ही विघातक है ।