धर्म से विमुखता अधोगति में हेतु है –पुरी शंकराचार्य

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धर्म से विमुखता अधोगति में हेतु है –पुरी शंकराचार्य

भुवन वर्मा बिलासपुर 15 दिसंबर 2020

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

जगन्नाथपुरी – ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज वेदों में वर्णित धर्माचरण की समुपलब्धि की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि वेद सदा सबके हित का ही उपदेश करते हैं, वे सदा सत्य का ही निरूपण करते हैं, वे मनुष्यों के लिये अद्रोह, दान तथा हितप्रद सत्य सम्भाषणरूप तीन श्रेयस्कर व्रत का प्रतिपादन करते हैं। महर्षियों ने इस वेदवचन का परिपालन किया है, व्यासादि महर्षियों ने इस वैदिकी गाथा का समादर किया है तथा उपदेश दिया है, इस वेदानुवचन का दृढ़ता तथा तथा दक्षतापूर्वक अनुपालन हमारा दायित्व है। महाभारत अनुशासनपर्व के अनुसार मनुष्य के लिये उत्तम हितप्रद व्रत तीन ही हैं — द्रोह ना करें तथा दान दे और हितप्रद सत्य सम्भाषण करें। जो अहिंसक सर्व प्राणियों को अभय प्रदान करने वाला है, वह अवश्य ही धर्मात्मा है, जो सबके प्रति दयालु , सबके प्रति सुकोमल, सर्वात्मदर्शी है, वह नि:सन्देह धर्मात्मा है। सबके प्रति सरल, सर्वहितैषी, सर्वहितज्ञ, सर्वहित में तत्पर और समर्थ अवश्य ही सर्व श्रुतिस्वरूप है। क्षमाशील, जितेन्द्रिय, क्रोधविजयी, धर्मनिष्ठ, अहिंसक और सदा धर्मपरायण मनुष्य ही धर्म के फल का भागी होता है । धर्माचरण से श्रेय की समुपलब्धि और वृद्धि सुनिश्चित है, तद्वत् अधर्माचरण से श्रेय की अनुपलब्धि और अधोगति भी सुनिश्चित है। अत: श्रेयोपलब्धि की भावना से सदा धर्माचरण ही कर्त्तव्य है। विधिवत् समनुष्ठित धर्म ही अनात्म वस्तुओं के प्रति आसक्तिरूप राग का शोधनकर ब्रह्मानुसन्धान और ब्रह्मविज्ञान में अधिकृत करता है, जबकि धर्म से विमुखता अधोगति में हेतु है तथा विषयसुख की समुपलब्धि की भावना से धर्मानुष्ठान प्रकृतिप्रदत्त संसृतिचक्र के अनुवर्तन में हेतु है। धर्मनिष्ठा तथा ब्रह्मनिष्ठाविहीन जन्म तथा मृत्यु के अजस्र प्रवाह का अतिक्रमण नहीं कर पाता । धर्माचरण के विचारपूर्वक परिपालन से भवभयवारक — भवतापनिवारक — भवतारक आत्मबोध सुनिश्चित है। महाभारत शान्तिपर्व के अनुसार धर्म करने से श्रेय की वृद्धि होती है और अधर्माचरण से व्यक्ति का अकल्याण होता है । विषयासक्त प्रकृति तथा प्राकृत प्रपञ्च में भटकता रहता है, जबकि विरक्त आत्मबोध लाभकर मुक्त होता है। जो आलस्यरहित , धर्मात्मा, यथाशक्ति सत्यपथ का अनुगमन करनेवाला, सच्चरित्र और प्रबुद्ध होता है, वह ब्रह्मभाव को प्राप्त करने में समर्थ होता है। निवृत्ति परमधर्म है , निवृत्ति परमसुख है । जो मन से सर्वविषयाशा से निवृत्त हो गये हैं, उन्हें विशाल धर्मराशि की प्राप्ति होती है। धर्म का पालन करते हुये ही जो धन प्राप्त होता है, वही सच्चा है । जो धन अधर्म से प्राप्त होता है, वह धिक्कार देने योग्य है । उस धन से क्या लाभ जिसे मनुष्य न तो किसी को दे सकता और न अपने उपभोग में ही ला सकता है। उस बल से क्या लाभ ? जिससे शत्रुओं को बाधित ना किया जा सके। उस शास्त्रज्ञान से क्या लाभ, जिसके द्वारा मनुष्य धर्माचरण ना कर सके, तद्वत् उस जीवात्मस्वरूप स्वयं से भी क्या लाभ, जो ना जितेन्द्रिय है और ना मन को ही वश में रख सकता है ।

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