शंकराचार्य परम्परा एवं चतुराम्नाय चतुष्पीठ – पुरी शंकराचार्य
शंकराचार्य परम्परा एवं चतुराम्नाय चतुष्पीठ – पुरी शंकराचार्य
भुवन वर्मा बिलासपुर 15 नवम्बरव2020
अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
जगन्नाथपुरी — श्रीशिवावतार भगवत्पाद आदिशंकराचार्य का जन्म केरल के कालटी गाँव में हुआ, उनके पिता का नाम श्रीशिवगुरू तथा माता का नाम सती आर्याम्बा था। वे नम्बूदिरीपाद ब्राह्मण थे, उनका जन्म युधिष्ठिर शकसंवत् 2631 तदनुसार 507 ईसा पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी रविवार के दिन हुआ। पांँचवें वर्ष में उनका उपनयन संस्कार हुआ, आचार्य शंकर ने अपनी माता की अनुमति से आठवें वर्ष में गृहत्याग कर कार्तिक शुक्ल देवोत्थान एकादशी के दिन नर्मदा तट पर श्रीगोविन्दपादाचार्य से संन्यास की दीक्षा ली, बारह वर्ष की आयु में उन्होंने ईशादि उपनिषदों के सहित ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीतादि पर अद्भुत भाष्यों की संरचना की, तदन्तर उन्होंने विविध प्रकरणग्रन्थों तथा स्त्रोतों की संरचना की।श्रीभगवत्पाद शंकराचार्य ने श्रीजगन्नाथधाम पुरी ओडिशा में गोवर्द्धनपीठ की स्थापना युधिष्ठिर शकसंवत् 2652 तदनुसार 486 ईसा पूर्व कार्तिक शुक्ल पंचमी को की, उन्होंने इसके प्रथम शंकराचार्य के रूप में पञ्चपादिका के रचयिता अपने प्रथम शिष्य श्रीपद्मपादाचार्य को युधिष्ठिर शकसंवत् 2655 तदनुसार 483 ईसा पूर्व वैशाख शुक्ल दशमी को स्वयं अभिषिक्त किया, इसी दिन उन्होंने विधर्मियों के शासनकाल में विलुप्त श्रीजगन्नाथादि को पुनः प्रतिष्ठित कर शंकराचार्य पुरी को इस संस्थान का नायक नियुक्त किया। उन्होंने पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठ के देवता श्रीजगन्नाथधाम को और भगवती सती के नाभिकमल के निपात से समुद्भूत भगवती विमला को इस पीठ की देवी उद्घोषित किया। पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनपीठ को उन्होंने ऋग्वेद और उसके अन्तर्गत आयुर्वेद से सम्बद्ध किया। श्रीशिवावतार भगवत्पाद शंकराचार्य ने राजा सुधन्वा को प्रेरित कर धर्मनियन्त्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त सर्वहितप्रद शासनतन्त्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया, उन्होंने वैदिक संन्यास को दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यवहारिक धरातल पर प्रशस्त करने की भावना से चतुराम्नाय चतुष्पीठ से सम्बद्ध संन्यासियों को वन, अरण्य ; तीर्थ, आश्रम ; गिरि, पर्वत, सागर एवं सरस्वती, भारती, पुरी दशरूपों में विभक्त किया। उन्होंने बृहद् अरण्यरूप वन और लघु वनरूप अरण्य को एवम् वनवासियों तथा अरण्यवासियों को सुरक्षित रखने और सुसंस्कृत करने की भावना से ऋग्वेदीय श्रीगोवर्द्धनमठ से सम्बद्ध वन तथा अरण्य नामा संन्यासियों को उद्भासित किया। महाभारत वनपर्व में सन्निहित वचन के अनुसार वन और अरण्य का अवान्तर प्रभेद सिद्ध है । उन्होंने तीर्थों तथा आश्रमों को एवं तीर्थ तथा आश्रमनिवासियों को सुरक्षित रखने और सुसंस्कृत करने की भावना से सामवेदीय श्रीद्वारकामठ से सम्बद्ध तीर्थ तथा आश्रम नामा संन्यासियों को उद्भासित किया। उन्होंने बृहद् गिरिरूप पर्वतों एवम् लघु पर्वतरूप गिरियों को एवम् पर्वत तथा गिरिनिवासियों को सुरक्षित रखने और सुसंस्कृत करने की भावना से अथर्ववेदीय श्रीज्योतिर्मठ से सम्बद्ध पर्वत तथा गिरि नामा संन्यासियों को तद्वत् सागर और सागर के तटवर्ती मनुष्यादि को सुरक्षित रखने और सुसंस्कृत करने की भावना से सागर नामा संन्यासियों को उद्भासित किया। महाभारत अश्वमेध पर्व के अनुशीलन से गिरि और पर्वत का अवन्तर भेद सिद्ध है, उन्होंने बृहत् शिक्षणसंस्थानों को सुरक्षित तथा सुव्यवस्थित रखने की भावना से यजुर्वेदीय शारदा शृंङ्गेरीमठ से सम्बद्ध सरस्वती नामा संन्यासियों को, तद्वत् मध्यम एवम् अवर शिक्षणसंस्थानों को सुरक्षित तथा सुव्यवस्थित रखने की भावना से भारती नामा संन्यासियों को, तद्वत् अयोध्या, मथुरा, काशी आदि पुरियों को सुरक्षित एवम् सुसंस्कृत रखने की भावना से पुरी नामक संन्यासियों को उद्भासित किया ।
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