छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र स्वामी आत्मानंद जी की 31 वीं पुण्यतिथि पर विशेष
छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र स्वामी आत्मानंद जी की 31 वीं पुण्यतिथि पर विशेष — अरविन्द तिवारी की कलम से
भुवन वर्मा बिलासपुर 26 अगस्त 2020
बिलासपुर । गांधी जी की लाठी लेकर आगे आगे चलते हुये एक बच्चे की तस्वीर को हम कई अवसरों में देखे होंगें। इस चित्र में गांधी जी की लाठी लेकर आगे आगे चलता बच्चा छग माटीपुत्र तब का रामेश्वर उर्फ तुलेन्द्र वर्मा और आज के स्वामी आत्मानंद जी हैं। ये यही स्वामी आत्मानंद हैं जिन्होंनें छत्तीसगढ़ में मानव सेवा , शिक्षा एवं संस्कार का अलख जगाया और शहरी व धुर आदिवासी क्षेत्र में बच्चों को तेजस्विता का संस्कार, युवकों को सेवा भाव तथा बुजुर्गों को आत्मिक संतोष का जीवन संचार किया। स्वामी विवेकानंद के विचारों का उन पर गहरा असर हुआ और उन्होंने अपना पूरा जीवन दरिद्र नारायण की सेवा में समर्पित कर दिया। ईशोपनिषद और गीता तत्व चिंतक इनकी व्याख्या अद्भुत है। उनके गीता तत्व चिंतक की रिकॉर्डिंग उपलब्ध है। इसे सुनना ज्ञान के सागर में डूबने जैसा है। जब वे राम नाम संकीर्तन करते थे तो उनकी सुमधुर आवाज में इसे सुनना दैवीय अनुभव होता है। बालक तुलेन्द्र का जन्म 06 अक्टूबर 1929 को ब्रह्ममुहूर्त में रायपुर जिले के बरबंदा गांव में हुआ। इनके राशि का नाम रामेश्वर था और स्कूल का नाम तुलेन्द्र पड़ा। इनके पिता धनीराम वर्मा पास के माँढर स्कूल में शिक्षक थे एवं माता भाग्यवती देवी कुशल गृहिणी थी । पिता धनीराम वर्मा नें शिक्षा क्षेत्र में उच्च प्रशिक्षण के लिये बुनियादी प्रशिक्षण केन्द्र वर्धा में प्रवेश ले लिया और परिवार सहित वर्धा आ गये । वर्धा आकर धनीराम जी गांधी जी के सेवाग्राम आश्रम में अक्सर आने लगे एवं बालक तुलेन्द्र भी पिता के साथ सेवाग्राम जाने लगे । बालक तुलेन्द्र गीत व भजन कर्णप्रिय स्वर में गाता था जिसके कारण गांधीजी उससे स्नेह करते थे। जब तुलेन्द्र चार साल के थे गांधी जी उसे अपने पास बिठाकर उससे हारमोनियम पर “रघुपति राघव राजाराम” भजन सुनते थे । धीरे धीरे तुलेन्द्र को गांधी जी का विशेष स्नेह प्राप्त हो गया, जब वे तुलेन्द्र के साथ आश्रम में घूमते थे तब तुलेन्द्र उनकी लाठी उठाकर आगे आगे दौड़ता था और गांधी जी पीछे पीछे लंबे लंबे डग भरते अपने चितपरिचित अंदाज में चलते थे।
कुछ वर्ष उपरांत धनीराम वर्मा जी रायपुर वापस आये एवं रायपुर में 1943 में श्रीराम स्टोर्स नामक दुकान खोलकर जीवन यापन करने लगे, बालक तुलेन्द्र नें सेंटपाल स्कूल से प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल की परीक्षा पास की और उच्च शिक्षा के लिये साइंस कालेज नागपुर चले गये । वहां उन्हें कालेज में छात्रावास उपलब्ध नहीं हो सका फलत: वे रामकृष्ण आश्रम में रहने लगे। यहीं से उनके मन में स्वामी विवेकानंद के आदर्शों नें प्रवेश किया बाद में उन्हें कालेज के द्वारा छात्रावास उपलब्ध करा दिया गया पर तब तक विवेक ज्योति नें उनके हृदय में प्रवेश कर परम आलोक फैला दिया था । तुलेन्द्र नें नागपुर से प्रथम श्रेणी में एमएससी(गणित) उत्तीर्ण किया, फिर दोस्तों की सलाह पर आईएएस की परीक्षा में सम्मिलित होकर उन्हें प्रथम दस सफल उम्मीदवारों में स्थान मिला पर मानव सेवा एवं विवेक दर्शन से आलोकित तुलेन्द्र नौकरी से विलग रहते हुये मौखिक परीक्षा में सम्मिलित ही नहीं हुये । वे रामकृष्ण आश्रम की विचाधारा से जुड़कर कठिन साधना एवं स्वाध्याय में ही रम गये। वर्ष 1957 में रामकृष्ण मिशन के महाध्यक्ष स्वामी शंकरानंद नें तुलेन्द्र की प्रतिभा, विलक्षणता, सेवा व समर्पण से प्रभावित होकर ब्रम्हचर्य में दीक्षित किया व उन्हें नया नाम दिया – स्वामी तेज चैतन्य । अपने नाम के ही अनुरूप स्वामी तेज चैतन्य नें अपनी प्रतिभा व ज्ञान के तेज से मिशन को आलोकित किया । अपने आप में निरंतर विकास व साधना सिद्धि के लिये वे हिमालय स्थित स्वर्गाश्रम में एक वर्ष तक कठिन साधना कर वापस रायपुर आये । स्वामी विवेकानंद के रायपुर प्रवास को अविश्मर्णीय बनाने के उद्देश्य से रायपुर में विवेकानंद आश्रम का निर्माण कार्य आरंभ कर दिया । इस कार्य के लिये उन्हें मिशन से विधिवत स्वीकृति नहीं मिली किन्तु वे इस प्रयास में सफल रहे एवं आश्रम निर्माण के साथ ही रामकृष्ण मिशन, बेलूर मठ से संबद्धता भी प्राप्त हो गयी।आज हम जिस विवेकानंद आश्रम का भव्य व मानवतावादी स्वरूप देख रहे हें वह उन्हीं स्वामी तेज चैतन्य की लगन व निष्ठा का प्रतिफल है जिन्हें बाद में स्वामी आत्मानंद के नाम से पुकारा गया । स्वामी जी छत्तीसगढ की सेवा में इस कदर ब्रम्हानंद में लीन हुए कि मंदिर निर्माण हेतु प्राप्त राशि भी अकालग्रस्त ग्रामीणों को बांँट दी । बाग्ला देश से आये शरणार्थियों की सेवा, शिक्षा हेतु सतत प्रयास, कुष्ठ उन्मूलन आदि समाजहित के कार्य जी जान से जुटकर करते रहे । शासन के अनुरोध पर वनवासियों के उत्थान हेतु नारायणपुर में उच्च स्तरीय शिक्षा संस्कार केन्द्र की स्थापना भी इस महामना के द्वारा की गई । इसके साथ ही इन्होंनें छत्तीसगढ में शिक्षा संस्कार, युवा उत्थान व प्रेरणा के देदीप्यमान नक्षत्र के रूप में चतुर्दिक छा गए । छत्तीसगढ को सुसंस्कृत करने हेतु कृत संकल्पित इस युवा संत को 27 अगस्त 1989 को भोपाल से सड़क मार्ग द्वारा रायपुर आते हुये राजनांदगांव के समीप एक दुर्घटना नें हमसे सदा सदा के लिये छीन लिया। छग के इस माटीपुत्र की 31वीं पुण्यतिथि पर आज जगह जगह श्रद्धांजलि समारोह आयोजित कर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित की जायेगी।
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