मान्य आचार्यों द्वारा मार्गदर्शित संगठन से ही आध्यात्मिक लक्ष्य संभव – पुरी शंकराचार्य

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मान्य आचार्यों द्वारा मार्गदर्शित संगठन से ही आध्यात्मिक लक्ष्य संभव — पुरी शंकराचार्य

भुवन वर्मा बिलासपुर 24 अगस्त 2020

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

जगन्नाथपुरी — ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज ने अपने संदेश में कहा कि कलिकाल में संगठन में ही शक्ति है। राष्ट्र रक्षा एवं सनातन धर्म के मानबिन्दुओं की रक्षा के लिये संगठन में नि:स्वार्थ रुप से कार्य करने हेतु तीन प्रक्रिया का पालन आवश्यक है , यह प्रक्रिया है चयन , प्रशिक्षण एवं नियोजन की। संगठन में कार्य करने हेतु पद , पैसा एवं प्रतिष्ठा की लालसाविहीन संकल्प की आवश्यकता होती है , तभी हम मान्य आचार्यों के द्वारा संस्थापित संगठन से जुड़कर अपने धर्म एवं आध्यात्म संबंधी संकल्पित दायित्वों के निर्वहन में सफल हो सकते हैं , अन्यथा किसी संगठन के गुप्त एजेंडे को पूरा करने के लिये कठपुतली बन कर कार्य करना पड़ेगा। संगठन वास्तव में संकलन का विनियोग होता है,। वह विनियोग अगर समाज और राष्ट्र की रक्षा के लिये किया जाये तो वह कल्याणकारी होता है। लेकिन उसका विनियोग तुच्छ राजनैतिक हितों की सिद्धि के लिये समाज कल्याण के नाम पर किया जाये तो निश्चित रूप से वह भविष्य में राष्ट्र के लिये घातक सिद्ध होता है। अभी राजनीति से प्रेरित होकर के किसी संगठन के द्वारा भारतीय संस्कृति के द्वारा परिभाषित मंदिर परंपरा को विखंडित करने का प्रयास व्यापक स्तर पर किया जा रहा है। देह की दृष्टि से धर्म को मानने वाले कभी भी मोक्षपरक धर्मानुष्ठान नहीं कर सकते।
हमारे शास्त्र कहते हैं अगर धर्मानुष्ठान मोक्ष की भावना से नहीं होता है तो वहांँ पर धर्म को दिशाहीन होने से बचा पाना असंभव है। भारतीय संस्कृति की प्राचीन परंपरा में अनास्था उत्पन्न करने वाले ना तो इस संगठन का भविष्य में कोई उत्कर्ष हो सकता है और ना ही उन व्यक्तियों का कभी उत्कर्ष हो सकता है जो अपने स्वार्थ सिद्धि के लिये अनाधिकार धर्म चेष्टा कर रहे हैं। श्रीमद्भागवत में कोई भी धार्मिक कार्य धर्म पुरुषार्थ तब बनता है जब उसमें अनाधिकार चेष्टा ना की गई हो। सनातन धर्म में स्वधर्म का पालन ही वास्तव में परम पद की प्राप्ति का मुख्य मार्ग है। इसलिये शास्त्रों ने जो विशेष धर्म सब के लिये निर्धारित किये हैं, उस धर्म की सीमा में व्यक्ति को जीवन में अपने कार्यों का संपादन करना चाहिये तभी उसका अलौकिक एवं पारलौकिक उत्कर्ष हो सकता है। वर्तमान समय में राजनीति से प्रेरित इस तरह के अभियान वास्तव में भविष्य में भारत के लिये गृह युद्ध के भी एक कारण बनेंगे। क्योंकि अभी हम घटना देखा गया है कि अमुक वर्ग के व्यक्ति साधु संत या महामंडलेश्वर बना देने के बाद भी समाज में अमुक वर्ग के साधु संत महामंडलेश्वर ही संबोधित किये जाते हैं। उसी तरह से अमुक वर्ग के व्यक्ति यदि पुजारी बनेंगे तो भी वह समाज में अमुक वर्ग के ही पुजारी पुकारे जायेंगे। ऐसी स्थिति में सरकार के द्वारा प्राप्त जो विशेष प्रकार के एक्ट हैं उनका प्रयोग करके परंपरा से पूजा कार्यों में विहित वर्गों के लिये एक नई आपदा प्रस्तुत कर सकते हैं। वास्तव में इस तरह की योजना धर्म के नाम पर सनातन धर्म को नष्ट करने की भी योजना है। क्योंकि आप अपने प्रभाव का प्रयोग करके किसी की भी नियुक्ति तो करा सकते हो लेकिन किसी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न नहीं कर सकते। परंपरा में विश्वास रखने वाले व्यक्ति कभी भी सामाजिक नियमों से अलग किसी के चरणों में अपना सर नहीं झुका सकते । साथ ही ध्यान दें यहांँ तो आप अपने ताकत और सत्ता का प्रयोग करके परंपरा प्राप्त नियमों में फेरबदल तो कर सकते हो लेकिन उन पुजारियों को भी यह बात ध्यान करने की आवश्यकता है कि मृत्यु के बाद का जो संविधान है उस में फेरबदल करने के लिये कौन सी सत्ता वहांँ पर उपस्थित रहेगी? अगर उनका शास्त्रों में लिखित लोक परलोक में विश्वास है तो निश्चित रूप से आधी अधूरी बात को स्वीकार नहीं करना चाहिये और इस तरह के अभियान का बहिष्कार उनको स्वयं करना चाहिये। नहीं तो कल मंदिर और धर्म भी विश्वास का केंद्र ना बन कर के राजनीतिक और सामाजिक वैमनस्यता का केंद्र बनेगा। इसलिये इस तरह के निर्णय को क्रियान्वित करने के पहले समाज व्यक्ति और समाज को अवश्य सोचना चाहिये।साथ ही कोई संगठन अपनी ताकत का दुष्प्रयोग किस तरह से कर सकता है। दुर्भाग्य की बात है कि देश में कोई ऐसा संगठन नहीं है जो अपनी परंपरा की रक्षा के लिये आवाज़ उठाये। महाराजश्री ने सभी सज्जनों से आग्रह किया कि वह तमाम प्रकार के जंजालों से दूर होते हुये परंपरा प्राप्त सनातन धर्म की रक्षा के लिये एकत्र होकर के एक संगठित स्वरूप में अपनी अभिव्यक्ति को मजबूत स्वर प्रदान करें।
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