गांधी का जाप करने वालों ने उनके ग्राम न्यायालय की घोर अवहेलना की
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भुवन वर्मा, बिलासपुर 20 अक्टूबर 2019
लेखक:-राजेश अग्रवाल (वरिष्ठ पत्रकार एवम संपादक)
इस समय देश के शीर्ष से लेकर निचली अदालतों तक लम्बित मुकदमों की संख्या लगभग तीन करोड़ 50 लाख है। यदि इन्हें कम करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए तो इसी अनुपात में मुकदमे बढ़ते जाएंगे। अनुमान है कि सन् 2040 तक लंबित मामलों की संख्या बढक़र 15 करोड़ हो चुकी रहेगी। जाहिर है, असंख्य मुकदमे उन ग्रामीणों के हैं जिन्हें फैसले की आस में जमीन, मकान गिरवी रखने पड़ जाते हैं।
महात्मा गांधी की 150वीं वर्षगांठ। पूरे देश में प्राय: सभी राजनीतिक दलों में होड़ मची हुई है कि कौन उनका अनुसरण करने में आगे है। गांधी गांवों को सशक्त बनाना चाहते थे। पर ग्राम न्यायालयों के संदर्भ में देखा जाए तो उनकी इस अवधारणा को अमल में लाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। कानून बन जाने के बावजूद छत्तीसगढ़ समेत देश के प्राय: सभी राज्यों में इस अधिनियम की घोर उपेक्षा हो रही है।
सन् 1986 में लॉ कमीशन की 114वीं रिपोर्ट में ग्रामीणों को, जिनमें ज्यादातर गरीब हैं उनको पहुंच के भीतर न्याय देने, दूरी, समय, खर्च, श्रम हानि पर अंकुश लगाने के लिए ग्राम न्यायालय की सिफारिश की गई। करीब 22 साल बाद लॉ कमीशन की सिफारिश को मंजूर करते हुए संसद ने ग्राम न्यायालय को अधिनियमित किया, जिसे ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 कहा गया और इसे गांधी जयंती के दिन सन 2009 में दो अक्टूबर को लागू किया गया। अंतिम छोर के नागरिकों को न्याय प्रदान करना, सामाजिक, आर्थिक और अन्य अक्षमताओं के कारण किसी को भी न्याय से वंचित नहीं करना इस अधिनियम का उद्देश्य बताया गया। अधिनियम की कंडिका 3 और 4 में बताया गया है कि राज्यों में ग्राम न्यायालयों की स्थापना किस तरह से की जानी है।
मोटे तौर पर इसमें यह है कि राज्य सरकार उच्च न्यायालयों से परामर्श करके प्रत्येकपंचायत या पंचायतों का समूह बनाकर न्यायालयों की स्थापना करे। इसकी सीमाएं आवश्यकता अनुसार घटाई-बढ़ाई जा सकती हैं। धारा 5 और 6 में कहा गया है कि राज्य सरकार के परामर्श से उच्च न्यायालय प्रत्येक ग्राम न्यायालय के लिए न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति करेगा। उनकी शक्ति प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के बराबर होगी। इसी की धारा 9 में बताया गया है कि न्याय को अधिक सुलभ बनाने के लिए ये ग्राम न्यायालय चलित अदालतों के रूप में भी काम कर सकेंगे।
धारा 11, 12 और 13 में सिविल और क्रिमिनल मामलों में इन अदालतों के क्षेत्राधिकार तय किये गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि धारा 16 के अंतर्गत, जिला न्यायालयों के मुकदमों को उच्च न्यायालय जब जरूरी समझे ग्रामीण अदालतों में सुनवाई के लिए भेज सकता है, ताकि मुकदमों का बोझ घटे। त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिए धारा 19 के तहत आपराधिक मामलों में समरी ट्रायल तथा धारा 20 में दलीलों का प्रावधान किया गया है। इसी तरह दीवानी मामलों में भी धारा 24 के तहत विशेष प्रक्रियाओं का उल्लेख है, जिससे फैसला जल्द हो सके। धारा 26 में सिविल विवादों के समाधान और निपटारे के लिए ग्राम न्यायालयों के कर्तव्य निर्धारित किये
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गए हैं। आमतौर पर जिन मामलों में अनेक दिक्कतों के कारण लोग मौजूदा अदालतों तक नहीं पहुंच पाते उन्हें इन ग्राम न्यायालयों में सुने जाने का प्रावधान किया गया है, जैसे जमीन का अधिग्रहण, कब्जा या मनरेगा की मजदूरी के भुगतान का विवाद। चूंकि ये अदालतें ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित होनी है इसलिए तारीख पर तारीख वाली स्थिति भी बहुत कम होगी क्योंकि ग्रामीण अपने आसपास होने वाली पेशी में सहज रूप से पहुंच जाया करेंगे।
सन् 2009 में अधिनियम लागू करते समय देशभर में कम से कम 5000 ग्राम न्यायालयों की स्थापना का लक्ष्य रखा गया था लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति हैरान करने वाली है। केन्द्र सरकार की 2018 में तैयार की गई अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ 11 राज्यों ने सीमित संख्या में ग्राम न्यायालय स्थापित करने के लिए अधिसूचना जारी की, इनमें भी केरल, हरियाणा और महाराष्ट्र को छोडक़र वास्तविक रूप से काम कर रहे न्यायालयों की संख्या भी कम है। मध्यप्रदेश में नोटिफाई 89 में से 83, राजस्थान में 45 में से केवल 15 ग्राम न्यायालय कार्यरत हैं। कर्नाटक में दो ग्राम न्यायालयों का नोटिफिकेशन हुआ पर कार्यरत एक भी नहीं।
यही स्थिति झारखंड, गोवा और पंजाब की है, जहां क्रमश: 6, दो और दो ग्रामीण अदालतों के लिए अधिसूचना निकाली गई पर काम एक भी नहीं कर रही है। ओडिशा में 16 ग्राम न्यायालयों की अधिसूचना जारी हुई जिनमें 13 काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र में 23 और केरल में 29 ग्राम न्यायालयों के नोटिफिकेशन निकले और सभी काम भी कर रहे हैं। हरियाणा में केवल दो ग्राम न्यायालयों के लिए नोटिफिकेशन जारी किया गया लेकिन दोनों काम तो कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में दोनों प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा गांधीजी के नाम पर पदयात्राएं निकाल रही है पर न तो पिछली सरकार ने ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही मौजूदा सरकार ने अब तक इस दिशा में कोई कदम उठाया है।
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ग्राम न्यायालयों की स्थापना को लेकर राज्यों की उदासीनता से चिंतित करीब डेढ़ सौ स्वयंसेवी संस्थाओं के फेडरेशन सोसाइटीज फॉर फास्ट जस्टिस ने अधिवक्ता प्रशांत भूषण के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रखी है। बीते सितंबर माह में प्रारंभिक सुनवाई के बाद कोर्ट ने सम्बन्धित सभी राज्यों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। फेडरेशन के संयोजक प्रवीण पटेल बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार का ध्यान इस ओर दिलाया गया था। सभी तथ्यों से अवगत होने के बावजूद तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। जब ज्ञापन सौंपा गया तो उन्होंने कहा कि आप इस बारे में केन्द्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद से बात करिए। फेडरेशन ने ग्राम न्यायालयों की स्थापना की मांग को लेकर अम्बिकापुर से रायपुर तक पदयात्रा भी निकाली लेकिन नतीजा नहीं निकला।
इस समय देश के शीर्ष से लेकर निचली अदालतों तक लम्बित मुकदमों की संख्या लगभग तीन करोड़ 50 लाख है। यदि इन्हें कम करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए तो इसी अनुपात में मुकदमे बढ़ते जाएंगे। अनुमान है कि सन् 2040 तक लंबित मामलों की संख्या बढक़र 15 करोड़ हो चुकी रहेगी। जाहिर है, असंख्य मुकदमे उन ग्रामीणों के हैं जिन्हें फैसले की आस में जमीन, मकान गिरवी रखने पड़ जाते हैं। सन् 2008 में 5000 ग्राम न्यायालयों की स्थापना की परिकल्पना की गई थी। अब लक्ष्य अधिक होना चाहिए। यदि ये अदालतें गठित हो गईं तो ज्यादातर मुकदमों को वहीं पर निपटाया जा सकेगा और मौजूदा अदालतों की बोझ को एक बड़े स्तर तक कम किया जा सकेगा।
प्रसंगवश, यह बताना होगा कि सरकारें गहराई से विचार करती हैं कि किस कानून को लागू करना है किसे नहीं। वाणिज्यिक अधिनियम 2015 इसका सटीक और दिलचस्प उदाहरण है। 31 दिसम्बर 2015 को वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम की अधिसूचना जारी की गई। इसमें कहा गया कि यह कानून 23 अक्टूबर 2015 से लागू होगा। यानि अधिसूचना जारी होने के भी पहले की तारीख से। इससे यह पुष्टि होती है कि जब कार्पोरेट का हित हो तो सरकारें अदालतों को पुरानी तारीख से काम पर लगा देती हैं और अधिसूचना बाद में जारी की जाती है।
हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में हैं। हम इसके स्वस्थ होने का दावा कैसे कर सकते हैं जब इसके तीनों अंग न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका जनहित में काम नहीं कर पायें। लोकतांत्रिक सरकार का कर्तव्य है कि वह लोगों की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं पर जवाब दे और संविधान में दिए गए कानून के राज को स्थापित करे।
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संविधान की प्रस्तावना का हमारे ह्रदय में स्थान है जो कहता है कि समान सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त करना सबका अधिकार है। जीवन की स्वतंत्रता हमारा मौलिक अधिकार है यह संविधान में भी लिखा गया है और कई बार सर्वोच्च अदालतों ने इसकी स्पष्ट व्याख्या भी की है। क्या शीघ्र न्याय पाना निर्धन ग्रामीणों के मौलिक अधिकार में शामिल नहीं? आपराधिक मुकदमों का फैसला कई बरसों तक रुका रहता है दीवानी मुकदमे लड़ते-लड़ते तो पीढ़ी ही गुजर जाती है। शीघ्र न्याय का रोना दो-तीन दशकों से रोया जा रहा है पर निदान के लिए स्पष्ट प्रावधान होने के बाद भी सरकारें उदासीन हैं। फैसलों में असामान्य देरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर अविश्वास भर देता है, लोग निराश हो जाते हैं। आगे चलकर यह कानून के उल्लंघन और अराजकता का कारण भी बन जाता है। महात्मा गांधी की 150वीं वर्षगांठ पर सरकारें उनके सपनों को पूरा करने का संकल्प ले रही हैं। क्या छत्तीसगढ़ सरकार गांधीजी के इस सपने को पूरा करने के लिए पहल करेगी?
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