चिदात्मा सर्वगत सर्वोपादान सर्वाधिष्ठान है – पुरी शंकराचार्य
चिदात्मा सर्वगत सर्वोपादान सर्वाधिष्ठान है – पुरी शंकराचार्य
भुवन वर्मा बिलासपुर 20 फ़रवरी 2021
अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
जगन्नाथपुरी — हिन्दुओें के सार्वभौम धर्मगुरु पुरी शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज जी प्रत्येक जीव के चाह की वास्तव स्वरूप की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि जीव मृत्यु — अज्ञता — दु:ख — विनिर्मुक्त सत् , चित् , आनन्दरूप होकर शेष रहना चाहता है। वह व्यवहारिक धरातल पर परम स्वतन्त्र तथा सर्वनियामक होना चाहता है। उपनिषदों में ब्रह्म की आत्मरूपता का वर्णन है। ब्रह्म अनन्त सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वथा स्वतन्त्र और सर्वनियामक सर्वेश्वर है। देश — काल — वस्तु निमित्त से जिसका विनाश न हो वह अविनाशी सत् है। उत्पत्ति तथा विनाशशून्य नित्य चैतन्यस्वरूप ज्ञान है।अविशिष्ट अपरिमित सुख चैतन्यस्वरूप आनन्द है। सच्चिदानन्द स्वरूप को जानकर आनन्दरूपा स्थिति सुख है। जीव स्वयं की अबाध अकुण्ठ अप्रत्याहत गति चाहता है । यह पूर्णरुप से तभी सम्भव है, जब वह स्वरुपत: देश — काल — वस्तु — परिच्छेद शून्य अनन्त हो। घटादि में मृत्तिका की, सुवर्णाभूषणों में सुवर्ण की तन्तुपट में तन्तुओं की व्याप्ति के तुल्य व्यक्ताव्यक्त प्रपञ्च में व्यापक पूर्ण चिदात्मा अनन्त है। निज सर्वस्व के बिना किसी को भी कैसी विश्रान्ति ? तरङ्ग की जैसी समुद्रानुगामिता है, ठीक वैसी ही प्राणिमात्र की भगवदनुगामिता है । भेद यही है कि ज्ञानी अपने प्रियतम को जानकर प्रेम करता है ; जबकि अन्य उन्हें ना जानते हुये भी उन्हीं के लिये व्यग्र रहते हैं । बहिर्मुखता के समाश्रयण से लक्ष्य बदल जाता है । मनुष्य की द्रव्योपार्जन, शिष्यसम्पादन, मानादि की ओर प्रवृत्ति होने लगती है। यहाँ तो वैराग्य चाहिये, बिना वैराग्य के फटी — पुरानी गुदड़ी भी नहीं छूटती। पर वह वैराग्य सदा बना नहीं रहता, यदि वैराग्य सदा बना रहे, देह — इन्द्रिय — प्राण — अन्त:करण से विविक्त आत्मा में ही आत्मबुद्धि हो तो कौन बन्धन से मुक्त ना हो । अभिप्राय यह है कि चिदात्मा सर्वगत सर्वोपादान सर्वाधिष्ठान होने के कारण वस्तुकृत तथा देशकृत परिच्छेदशून्य ; अतएव कालकृत परिच्छेदशून्य भी है।
समग्र अधिभूत, अध्यात्म और अधिदैवसहित कार्यकारणात्मक प्रपञ्च को जानने की इच्छा जीव में सन्निहित है। अतः वह सर्वज्ञ होना चाहता है। सर्वभासक स्वप्रकाश सर्वद्रष्टा चिद्रूप होने की भावना स्वरूप के विरुप न होकर सर्वथा अनुरूप ही है। द्रष्टा, ज्ञातादिरुपों में उल्लासित यह जीव स्वयं ज्ञानस्वरूप ही सिद्ध होता है । वटवृक्ष और वटबीज का ज्ञाता वटज्ञ मान्य है ; तद्वत् सृष्टि और सृष्टिबीज का ज्ञाता सर्वज्ञ मान्य है । जागृत् तथा स्वप्न में अधिभूत, अध्यात्म और अधिदैवरूप कार्यवर्ग का ज्ञाता तथा सुषुप्ति में बीजभूत अज्ञान का ज्ञाता जीव सर्वज्ञ सिद्ध है ।बृहदारण्यकोपनिषत् में उल्लेखित असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतंगमय श्रुति के अनुशीलन से यह तथ्य सिद्ध है कि जीव असत् से सत् की ओर , तमस् से ज्योति की ओर और दु:ख से आनन्द की ओर जाना चाहता है ; अर्थात् सच्चिदानन्द मात्र होकर शेष रहना चाहता है। इस प्रकार जीव की चाह का विषय सच्चिदानन्द सिद्ध होता है ; जो कि उसका वास्तव स्वरूप ही है।