सनातन धर्म में कर्तव्यपालन विहित है – पुरी शंकराचार्य
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सनातन धर्म में कर्तव्यपालन विहित है – पुरी शंकराचार्य
भुवन वर्मा बिलासपुर 01 फ़रवरी 2021
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अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
जगन्नाथपुरी- हिन्दुओें के सार्वभौम धर्मगुरु पुरी शंकराचार्य जी सनातन धर्म एवं इसमें सन्निहित वर्णाश्रम व्यवस्था की उपयोगिता पर संकेत करते हैं कि सनातन धर्म में शिक्षा , रक्षा , अर्थ , सेवा , न्यायादि की व्यवस्था सबको सदा समुचित सन्तुलित रुप से सुलभ कराने की भावना से निसर्गसिद्ध वर्णाश्रम व्यवस्था है। समय और सम्पत्ति की सुलभता तथा सदुपयोगिता, बुद्धि और श्रम की सहभागिता , कर्तव्यपालनार्थ अपेक्षित संस्कारसम्पन्नता , स्वावलम्बन और सुबुद्धता , दम-दया-दानादि मानवोचित शीलसम्पन्नता , वर्णसंकरता और कर्मसंकरता से परांगमुखता , विषयलोलुपता तथा बहिर्मुखता से उपरामता, संयुक्त परिवार के कारण सहयोगियों की सुलभता, शुचिता तथा दक्षता इसकी निसर्गसिद्ध दिव्यतायें हैं।
ऊर्जा के पृथ्वी-जल-तेज- वायु आदि स्त्रोतों की ; तद्वत् वन , पर्वत , सागर , तीर्थ , पुरी , आश्रम , गुरुकुल , सती , गोवंश , गंगादि सनातन प्रशस्त मानबिन्दुओं की रक्षा तथा इनकी सनातनविधा से संस्कार सम्पन्नता सनातन संस्कृति की अद्भुत विशेषता है। मानव जीवन की अपूर्वता का ज्ञान तथा इसकी सार्थकता का ध्यान इसकी अमोघदर्शिता है। जन्ममृत्यु की अनादि और अजस्र परम्परा के आत्यन्तिक उच्छेद की भावना इसकी दिव्यता है। सर्वहित की भावना से व्यक्ति और समाज की संरचना इसमें सन्निहित है।
सनातन धर्म में स्वाधिकार की सीमा में कर्तव्यपालन विहित है ; अतः अनावश्यक या अत्यधिक दायित्व से सबको मुक्त रखने की अद्भुत चमत्कृति है। सनातन वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुरूप सामाजिक संरचना में प्रत्येक व्यक्ति की जीविका जन्म से आरक्षित है ; अत: आर्थिक विपन्नता असम्भव है । वंशपरम्परागत जीविकोपार्जन की दक्षता से सम्पन्न जन्म भी जीविकोपार्जन में उपयोगी है। शिक्षा, रक्षा, वाणिज्य और सेवादि के प्रकल्पों के समुचित संचालन की भावना से न्यूनाधिक रहित जनसंख्या की निसर्गसिद्ध सुलभता सनातन संस्कृति की अद्भुत दिव्यता है।
जन्म से ब्राह्मणादि न मानने पर प्राप्त विसंगतियों का निवारण असम्भव है। समाज को शिक्षक , न्यायाधीश , अधिवक्ता , चिकित्सक वास्तुविद्याविशारदादि अवश्य चाहिये।इसी प्रकार रक्षक , कृषक , वणिक , स्वर्णकार , सेवक , नापित , रजक , कुम्भकार , चर्मकार , जुलाहा , सफाईकर्मी आदि भी चाहिये। ये यदि वंशपरम्परा से नहीं चाहिये, तब इनकी वैकल्पिक संरचना में समय , सम्पत्ति का अपव्यय , अपेक्षित संस्कार का अभाव , संयुक्त परिवार का विघटन , वर्णसंकरता तथा कर्मसंकरता की विभीषिका , परस्पर स्नेह और सद्भाव का लोप तथा उत्तरोत्तर प्रज्ञाशक्ति और प्राणशक्ति का ह्रास, शिक्षा — रक्षा-अर्थ और सेवा के प्रकल्पों में असन्तुलन , ब्राह्मणादि की न्यूनता या अधिकता, देहात्मवाद की प्रगल्भता, अर्थकाम की दासता, श्रौतस्मार्तसम्मत कर्मोपासनादि का विलोप और उसके फलस्वरूप दिक्पालादि पद की अप्राप्ति और सर्वविध अपकर्ष भी अनिवार्य है। श्रुति तथा संयमशील ब्राह्मणों का, तेजस्वी क्षत्रियों का , दक्ष वैश्यों का , सर्ववर्णानुकूल शूद्रों का और शीलनिधि स्त्रियों का अदर्शन भी सुनिश्चित है। वैकल्पिक आरक्षण में उभयपक्ष की प्रतिभा तथा प्रगति का विलोप , प्रयोगविहीन प्रलोभन , प्रतिशोध और देश की बौद्धिक तथा भौतिक धरातल पर परतन्त्रता सुनिश्चित है।
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