धर्म का फल सुख ही होता है — पुरी शंकराचार्य
धर्म का फल सुख ही होता है — पुरी शंकराचार्य
भुवन वर्मा बिलासपुर 12 जनवरी 2021
अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
जगन्नाथपुरी — ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज संकेत करते हैं कि धर्म का फल सुख ही होता है, अधर्म का परिणाम में दु:ख ही होता है। पुरी शंकराचार्य जी विस्तार से चर्चा करते हैं कि पापी पे परमात्मा रीझते नहीं हैं, न्यायपूर्वक जो धन संचय करेगा तो नर्क में दूसरे क्यों जायेंगे ? नर्क में जाने वाले प्राणी कौन हैं ? दूसरों को लूटने वाले और जघन्य अपराध करने वाला तो यहीं दंड प्राप्त कर लेता है। यदि किसी के हाथ से रोटी छीन के खा लेंगे, पेट भी भरेगा, तात्कालिक लाभ होगा, लेकिन वो रोटी जो है सुखपूर्वक, चैनपूर्वक रहने दे संभव नहीं। इसलिये सन्मार्ग पर चलने पे पहला फल तो क्या होता है , भगवत्प्राप्ति के अनुकूल वेग और बल प्राप्त होता है। महाभारत में दृष्टांत है कि युधिष्ठिर जी बहुत विह्वल होकर भीष्म जी से कहते हैं कि हे पितामह ! क्या धर्म का फल दुःख होता है ? हम तो जीवन भर विपत्ति के पापड़़ बेल रहे हैं, दुःख ही दुःख है। भीष्म जी ताव में नहीं आते थे परन्तु इस प्रश्न पर ताव में आकर कहते है युधिष्ठिर सुनो, काल में भी वो क्षमता नहीं है कि धर्म का फल दुःख दे दे। धर्म का फल सुख ही होता है, अधर्म का फल परिणाम में दुःख ही होता है। गीता के अठारहवें अध्याय में लिखा है कि आरम्भ में अमृत के समान, परिणाम में विष के समान उसको राजा सुख कहते हैं । संयम के मार्ग पर, धर्म के मार्ग पर चलने पर आरम्भ में विष के समान कष्ट होता है, परिणाम में मंगल ही मंगल है। ‘अगर अमृतोपवं’ आरम्भ में मौज-मस्ती पूर्ण जीवन, ‘परिणामे विषमिव’ लौकिक उत्कर्ष भी उनका नहीं होता। सब धन जमा किया हुआ सब हड़प लिया जाता है और न्यायपूर्वक जो धन होता है, आग में वो क्षमता नहीं कि उसको जला दे, चोर में क्षमता नहीं कि उसकी चोरी कर ले। गीता के अठारवें अध्याय में है लिखा है कि ‘अगर अमृतोपवं’ खुजली जो है आरम्भ में सुख देती है, बाद में रुलाती है। विद्याध्ययन, संयम, ब्रह्मचर्य का बल, सत्यनिष्ठा आरम्भ में दुःख देती है, परिणाम में सुख देती है। इसलिये आरम्भ में जिनको अमृत के समान सुख मिल रहा है आप समझते हैं, आगे कल्पना कीजिये कि पूरा जीवन नहीं, एक एक हजार नहीं, दस हजार वर्षों तक नर्क की भट्ठी में उनको झुकना है। स्वामी अखंडानंद स्वामी जी ने एक बार बताया कि आग तीली के मुख को खाती हुई प्रकट होती है , अगर खरपतवार से रहित , ईंधन से रहित या सरोवर में जलती हुई तीली को फेंक देंगे , वहां। तो कारगर नहीं होगी। आश्रय पर कारगर हो गयी, आश्रय को अभिव्यंजक संस्थान को जलती हुई ही आग पैदा होती है। विषय पर कारगर होती है, कभी नहीं भी होती है। ऐसे जो क्रोध है, वो मीठा विष नहीं है, कड़वा विष है। काम और लोभ कौन से विष हैं मालूम है, मीठा विष ,क्रोध जो है कड़वा विष ,जिस आश्रय में क्रोध रहता है, उसको जलाता है। क्रोधी व्यक्ति किसी को गाली दे दे, गाली सुनने वाला क्षमाशील हो तो उसपे कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। एक ब्राह्मण ने हमसे कहा ‘महाराज मैं तो संतोष कर लूँ, घर की आधुनिक बेटियांँ , बहुयें , बेटे , उनको टेलीविज़न चाहिये , मोबाइल चाहिये , उनका मुँह कैसे बंद करूँ ? मैं तो रोटी नमक से गुजर कर लूँ , लेकिन घर के व्यक्ति सब तो सत्संगी नहीं है। तो सन्मार्ग पर चलने वाले जो हैं , कष्ट तो पाते हैं लेकिन आगे मङ्गल ही मङ्गल है।