भगवत्पाद आदि शंकराचार्य महाभाग का अद्वैत सिद्धांत

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भगवत्पाद आदि शंकराचार्य महाभाग का अद्वैत सिद्धांत

भुवन वर्मा बिलासपुर 5 जनवरी 2021

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

जगन्नाथपुरी — भगवत्पाद शिवावतार आदि शंकराचार्य महाभाग का अवतरण ईसा से 507 वर्ष हुआ था। उन्होंने अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुये विश्व को दर्शन दिया कि ब्रह्म पूर्ण व एकमात्र सत्य है ( शेष सब मिथ्या ) वह स्वयं ज्ञान है , वह सर्वोच्च ज्ञान है , जिस ज्ञान से/ जिसके ज्ञान से संसार का ज्ञान जो मूलतः अज्ञान है समाप्त हो जाता है वह है ब्रह्म ज्ञान । ब्रह्म अनन्त, सर्वव्यापी और सर्व शक्तिमान हैं , ब्रह्म विश्व का कारण है ( आचार्य शंकर ने जगत को ब्रह्म का परिमाण नहीं विवर्त के अर्थ में कारण माना है ) , इस विवर्त से ब्रह्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक जादूगर अपनी ही जादू से ठगा नहीं जाता / प्रभावित नहीं होता । अविद्या के कारण ही ब्रह्म नाना रूपात्मक जगत मे दिखता है।आचार्य शंकर ने ब्रह्म को निर्गुण कहा है , उपनिषदों मे सगुण व निर्गुण- ब्रह्म के दोनों ही रूपों की व्याख्या हुई है यद्यपि ब्रह्म निर्गुण है फिर भी उसे शून्य नहीं माना जा सकता , उपनिषदों मे भी निर्गुणों गुनी कह कर निर्गुण को भी गुण युक्त माना गया है , ब्रह्म दिक् काल की सीमा से परे है , ब्रम्ह पर कार्य कारण वाद का कारण नियम भी नहीं लागू होता ,यह उससे परे है, ब्रह्म सभी भेदों से रहित है वेदान्त दर्शन में तीन भेद बताये गये हैं :- सजातीय भेद : एक ही प्रकार की वस्तुओं मे विद्यमान भेद , विजातीय भेद : दो असमान वस्तुओं मे भेद , स्वागत भेद : एक ही वस्तु व उसके अंशों मे विद्यमान भेद। आचार्य शंकर ने ब्रह्म को ही आत्मा कहा है ब्रह्म स्वतः सिद्ध है , आचार्य ने सिद्ध करने के लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं माना है । शंकर का ब्रह्म सत्य है , सत्य वह है जो सभी विरोधों से मुक्त है । ब्रह्म व्यक्तित्व से रहित है , व्यक्तित्व में आत्मा और अनात्मा का भेद रहता है, ब्रह्म सभी प्रकार के भेदों से परे है इसीलिये ब्रह्म अपरिवर्तन शील है ,उसका ना ही विकास होता है ना ही रूपांतरण , वह निरंतर एक समान ही रहता है ।

ब्रह्म अनिर्वचनीय है

शंकराचार्य ने ब्रह्म को अनिर्वचनीय कहा है। उनके अनुसार ब्रह्म को शब्दों से प्रकाशित करना असंभव है , ब्रह्म को भावात्मक रूप से जानना भी संभव नहीं है । हम यह नहीं कह सकते कि ब्रह्म क्या है , अपितु यह जान पाते हैं कि ब्रह्म क्या नहीं है ? उपनिषद में ब्रह्म को नेति नेति कह कर संबोधित किया गया है , नेति नेति का शंकराचार्य के दर्शन में इतना प्रभाव है कि वे ब्रह्म को यह कहने के बजाय कि ब्रह्म एक है वे अद्वैत कहते है । ब्रह्म की व्याख्या निषेधात्मक रूप से की जाती है, शंकराचार्य जी ने ब्रह्म के विषय मे यह भी कहा है वह सत् चित् आनन्द स्वरुप है।

ब्रह्म के अस्तित्व के प्रमाण

शंकराचार्य जी के दर्शन का आधार उपनिषद , गीता तथा ब्रह्मसूत्र है , इनमें ब्रह्म के अस्तित्व का वर्णन है इसलिए ब्रह्म है। शंकराचार्य जी के अनुसार ब्रह्म सबकी आत्मा है जिसका अनुभव प्रत्येक व्यक्ति करता है अतः ब्रह्म का अस्तित्व है , यह मनोवैज्ञानिक प्रमाण है। जगत पूर्णतः व्यवस्थित है , व्यवस्था का कारण जड़ नहीं हो सकता, निश्चित रूप से एक चेतन कारण का अस्तित्व सिद्ध होता हि है वही ब्रह्म है , इसे प्रयोजनात्मक प्रमाण कहा जाता है । ब्रह्म वृह धातु ( वृहति वृन्हति ब्रम्ह ) से बना है जिसका अर्थ है वृद्धि , ब्रह्म से ही सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति हुई है। जगत के आधार के रूप मे ब्रह्म की सत्ता इस प्रकार प्रमाणित होती है , यह प्रमाण तात्विक प्रमाण कहा जाता है। ब्रह्म के अस्तित्व का सबसे प्रबल प्रमाण अनुभूति है , वह अपरोक्षानुभूति के द्वारा जाना जा सकता है , अपरोक्ष अनुभूति के फलस्वरूप सभी प्रकार के द्वैत समाप्त हो जाते हैं और अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार होता है , तर्क या बुद्धि से ब्रह्म का ज्ञान असंभव है क्योकि वह तर्क से परे है इसलिये अपरोक्ष अनुभूति -प्रमाण कहा गया है ।

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