गाय की उपेक्षा से ही भारत की दुर्दशा हुई है — अरविन्द तिवारी

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गाय की उपेक्षा से ही भारत की दुर्दशा हुई है — अरविन्द तिवारी

भुवन वर्मा बिलासपुर 21 नवम्बर 2020

रायपुर — आज पूरा देश गोपाष्टमी मनाने की तैयारियों में जुटा हुआ है।
भारतीय संस्कृति में गाय को हमारे जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में गाय को पूजनीय मानकर हर पर्व और उत्सव पर गाय की पूजा की परंपरा को महत्व दिया गया है। हमारे पूर्वज गाय के अंदर विद्यमान उन तत्वों से परिचित थे जिनकी खोज इस युग में वैज्ञानिक कर रहे हैं। गाय धर्म की मूल है , उसके बिना कोई सद्कर्म और शुभकर्म नही हो सकती। “गवां अंगेषु तिष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश”- गाय के शरीर में चौदह लोक विराजते हैं।
तुष्टास्तु गाव: शमयन्ति पापं , दत्तास्तु गावस् त्रिदिवं नयन्ति।
संरक्षिताश्च उपनयन्ति वित्तं , गोभिर्न तुल्यं धनमस्ति किंचित।।
— प्रसन्न होने पर गायें सारे पाप , ताप को धो डालती हैं और दान देने पर सीधे स्वर्ग लोक को ले जाती है , विधिपूर्वक पालन करने पर धन , वैभव , समृद्धि का रूप धारण कर लेती है , गायों के समान संसार में कोई भी सम्पत्ति या समृद्धि नही है।
जब कोई चीज वर्णशंकर बन जाती है तो उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है इसलिये विदेशियों ने गाय को वर्णशंकर बना दिया। जब से हमने गौमाता का तिरस्कार किया है तब से वह अपने सारी शक्तियों को छिपा दी है। आज भी अगर उन्हें कोई वशिष्ठ , जमदग्नि जैसा गौपुत्र मिल जाये तो वह अपनी सारी शक्ति प्रकट कर देगी। भारतीयों ने जब से गौमाता की उपेक्षा की तभी से भारत की दुर्दशा का प्रारंभ हुआ है। ” गोसेवा सम पुण्य ना कोई” – गो सेवा के समान कोई पुण्य नही है।ये इहलोक और परलोक में भी हमारा उपकार करती है , पृथ्वी के सप्त आधारभूत स्तम्भों में गाय प्रमुख स्तम्भ है। गौमाता के गोमय , गोमूत्र सहित उनके श्वास , प्रश्वास में भी असुरत्व को नष्ट करने की शक्ति है। सर्वदेवमयी गौमाता चैतन्य , प्रेम , करूणा ,त्याग , संतोष ,सहिष्णुता आदि दिव्यगुणों से परिपूर्ण है। गाय के रोम रोम में सात्विक विकिरण विद्यमान है रहती है , इससे मनुष्य को धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष चारों पुरूषार्थों की प्राप्ति होती है। बड़े दुख की बात है कि समस्त धर्मों , पुण्यों , सुख संपत्ति के भंडार एवं समस्त फलदायिनी गौमाता का वर्तमान में घोर तिरस्कार हो रहा है। इसके परिणामस्वरूप देश में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में रक्तपात , हिंसा , और उपद्रव आदि की भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई है। प्राचीन परंपरा में धर्म के बिना राजनीति विधवा मानी गई है परंतु वर्तमान राजनीति में धर्म का कोई स्थान नहीं है। आज विश्व के सभी शासनतंत्र धर्म के वास्तविक स्वरूपों को ना समझ कर दिशाहीन होकर जनभावनाओं के साथ जनता का और स्वयं का अहित कर रहे हैं। नि:संदेह इसमें विश्वरूप धर्म और विश्वधारणी गौ माता की उपेक्षा के साथ-साथ समस्त देवी देवताओं के प्रति अश्रद्धा का भाव ही प्रधान कारण है।

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