तबके का बाज़ार

रायपुर । धनतेरस के एक दिन पहले सुबह से ही शहर में भीड़ और दिवाली स्पेशल खरीदी की गहमा गहमी थी…रविवार का दिन था, लेकीन दिवाली के लिए सजे बाज़ार में तो रविवार और सोमवार दोनों एक ही पद पर कार्यरत दो कर्मचारियों की तरह ही लगते हैं…
धुल, धुप और तरह-तरह के लोगों से सजा दिवाली का बाज़ार पूरा गर्म था, सिवाय गर्म कपड़ों की दूकानों के…आखिर प्रकृति को छेड़ने का नतीजा भी तो हमें ही भुगतना है, जो इस साल नवम्बर के महीने में भी लोगों को गुलाबी ठण्ड नसीब नहीं हो रही थी…मेरी सलाह से तो उन तिब्बती व्यापारियों को इस साल मुनाफे का ख्याल छोड़ ही देना चाहिए..
थोड़ी सी क्रोधित धुप, धुल और अंधाधुंध ट्रैफिक से बगावत कर ज़रा आगे बढ़ी, तो अचानक मुझे उस बाज़ार में दो तबकों का एक अजीब सा विभाजित नज़ारा दिखाई पड़ा…लगा जैसे बाज़ार न हो कर जादूगर की छड़ी से लड़की का नागिन में बदलना देख लिया हो…बिल्कुल परदे के खुलने जैसा अलग ही नज़ारा था..
उस नज़ारे में एक था क्लासी और माध्यम वर्गीय लोगों का मिलाजुला ब्रांडेड बाज़ार…तो ठीक दूसरी ओर फुटपाथ पर लगी दुकानों पर लगे कपड़ो और चप्पलो के ढेर वाला बाज़ार… उस भीड़ को देखकर पता नहीं क्यों, आजीब सी वेदना महसूस हुई…भला क्या गलती थी उन लोगों जो दूसरी ओर के इस छोटे तबके वाले बाज़ार में खरीदी करने पर मजबूर थे…इसे गलती कहना तो जायज नहीं होगा, पर जिस अदा से पहले नज़ारे के लोग दुसरे नज़ारे पर मौजूद लोगों को देख रहे थे…इससे तो यही लगता था जैसे उनकी मजबूरी न होकर गलती हो गई हो…
खैर, इस सब बातों स हटकर उस दूसरे ओर की भीड़ में कुछ चीजें ऐसी थीं जो पहले ओर के हाईक्लास बाज़ारों में कभी नहीं मिल सकती थी, वो चीज़ थी साल भर में एक बार कपडे, जूते और मिठाइयां लेने की ख़ुशी…बेहद उम्मीदों के करने वाली इस वार्षिक इन्वेस्टमेंट जैसी खरीददारी की ख़ुशी…उन कपड़ों और चप्पलों के ढेर में से सबसे बेहतर चीज़ ढूंढ निकालने ख़ुशी… यही ख़ुशी उन बच्चों के चेहरों पर दमक-दमक कर कोहिनूर की भी मात दे रही थी..!! बस यही चमकती तस्वीर मेरे मन में घर कर गई…और उनकी ये मीठी मुस्कान धीरे-धीरे पनपकर ताज़ा मीठे गुलकंद का एहसास कराने लगी…
कोयले के खदानों में हीरों के ज़खीरे समान सुखद नज़ारा सिर्फ और सिर्फ इस “छोटे तबके के बाज़ार” में ही मिल सकता है… सच ही है…आज के इस हाईक्लास लाइफस्टाइल की भेड़चाल और “आविष्कार ही आवश्यकता की जननी है” वाले जीवन से हटकर थोड़ी सी खुशियों के पल ढूढने हैं…तो इस “तबके के बाज़ार” से बेहतर जगह कोई नहीं हो सकती… क्या होती है संतुष्टि…क्या होती है कुछ पाने की ख़ुशी….क्या होती है किसी छोटी सी चीज़ की बड़ी कीमत… ये तो बस..यहीं से ही सीखा जा सकता है..!!
इसी “तबके के बाज़ार से”..

प्रियल अमर शर्मा

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