’’मातृभाषा से दूर होती जा रही शिक्षा चिंतनीय’’ – टेसूलाल धुरंधर

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भुवन वर्मा बिलासपुर 17 जुलाई 2020

बलौदाबाजार ।शिक्षा का महत्व किसी से छिपा नहीं इसे आत्मसात कर चुके पालक भी अब अपने पाल्यों को स्वस्फूर्त स्कूल भेजने में कोताही नहीं बरतता। सरकारें भी शिक्षा के लोकव्यापीकरण के अपने नैतिक दायित्वों का निर्वहन कर रही हैं । इसी तारतम्य में शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 लागू होने के साथ ही शिक्षा मौलिक अधिकार में शामिल कर लिया गया है, ये अधिनियम सभी संबंधित सरकारों के लिए बाध्यकारी करता है कि 6-14 आयु वर्ग का हर बच्चा मु्फ्त शिक्षा प्राप्त करे। इस अधिनियम में यह भी उल्लेख है कि प्रत्येक बच्चे को मातृभाषा में शिक्षा प्राप्ति का अधिकार है। इस संदर्भ में शिक्षा सुधार संबंधी गठित विभिन्न आयोगों यथा वर्ष 1882 का ’भारतीय शिक्षा आयोग, 1952 का ’माध्यमिक शिक्षा आयोग’ एवं 1964 का ’राष्ट्रीय शिक्षा आयोग’ इस बात की पुष्टि करता है प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा एवं माध्यमिक शिक्षा (सेकेण्डरी लेवल) स्थानीय भाषाओं में दिया जाए।

महामना मदन मोहन मालवीय, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, डाॅ. भीमराव अंबेडकर, डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, पूर्व राष्ट्रपति डाॅ. अब्दुल कलाम आजाद, चंद्रशेखर वंेकट रमण, प्रफुल्ल चंद्र राय, जगदीश चंद्र वशु जैसे मूर्धण्य चिंतकों, वैज्ञानिकों एवं विश्व के सभी प्रमुख शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों ने मातृभाषा में शिक्षा को ही नैसर्गिक एवं वैज्ञानिक बताया है, अब प्रश्न उठता है कि मातृभाषा किसे कहा जाय इसका सही उत्तर यही है जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते है बच्चा जिस भाषा में रोता है, हंसता है, सपना देखता है, विचार और भाव व्यक्त करता है वही उसकी मातृभाषा है और इसी मातृभाषा को ध्यान में रखकर शिक्षा की आधारशीला रखी जानी चाहिए। मातृभाषा में शिक्षा पाना बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार है, जिन देशों के नीति नियंताओं ने इस बात को समझा और मातृभाषा की महत्ता को स्वीकार कर आगे बढा उन्हीं देशों को आज लब्ध प्रतिष्ठित और विकसित देशों की श्रेणी में गिना जाता है, चीन, जापान, रूस, जर्मनी कोरिया, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन और इजराइल आदि देशों में शिक्षा की भाषा वहाँ की अपनी भाषा है और हम स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी साक्षरता अभियान चलाने बाध्य हैं। इतने सारे प्रयासों के बाद भी राष्ट्रीय साक्षरता का दर 74 प्रतिशत तक पहुँच पाया है कुछ राज्यों की स्थिति इस मामले में और भी खराब है और इन सबका मूल कारण मातृभाषा की अवहेलना है हम तय करने की स्थिति में नहीं है की हमारी शिक्षा का माध्यम क्या हो जबकि सर्वमान्य है कि शिक्षा की शुरूआत मातृभाषा से ही हो।

हमारा देश विविधताओं से भरा पड़ा है यहाँ भाषा एवं बोलियों की परंपरा रही है इसीलिए कहावत भी है कि ’’कोस कोस में बदले पानी और चार कोस में वानी’’ छत्तीसगढ़ के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है यहां दो करोड़ लोगों की भाषा छत्तीसगढ़ी है, छत्तीसगढ़ी भाषा को डाॅ. रमन सिंह सरकार ने वर्ष 2007 में विधानसभा में सर्वसम्मत प्रस्ताव पास कराकर राजभाषा का दर्जा दिलाया था किन्तु 8 वीं अनुसूची में शामिल नहीं होने के कारण छत्तीसगढ़ी भाषा संवैधानिक मान्यता से वंचित है तथा इसी कारण से छत्तीसगढ़ी भाषा में शिक्षा हेतु प्रयास भी नहीं हो सका है, फिलहाल छत्तीसगढ़ के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम हिन्दी है पिछली तीन पीढ़ियां हिन्दी माध्यम की सरकारी स्कूलों से ही पढ़कर निकली हैं छत्तीसगढ़िया हिन्दी को ’अपना’ मानकर अपना चुके हैं, ग्रामीण अंचल के बच्चे भी मेरिट में स्थान प्राप्त कर हिन्दी की स्वीकार्यता को दर्शा रहे हैं।

ये सब होने के बाद भी सरकारी स्कूलों में दर्ज संख्या निरंतर घट रही है। कम दर्ज संख्या वाले हिन्दी माध्यम के हजारों स्कूल अब तक बंद हो चुके हैं। अच्छी पढ़ाई व अंग्रेजी के आकर्षण में फंसकर पालक निजी शालाओं की ओर रूख कर रहें हैं। अंगे्रजी माध्यम के स्कूलों का शहर से गाँव तक जाल फैल चुका है। सरकार भी स्वयं अंग्रेजी शिक्षा के चक्कर में पड़कर हिन्दी माध्यम के स्कूलों को बंदकर अंग्रेजी माध्यम में तब्दील कर रही है। सभी जिला मुख्यालयों में खोला जा रहा कक्षा 01 से 12 तक का उत्कृष्ट विद्यालय इसका ताजा उदाहरण है, सरकार द्वारा स्वयं शिक्षा शास्त्रियों, ’शिक्षा के अधिकार अधिनियम’ को ताक में रखकर हिन्दी माध्यम के शालाओं की हत्या कर अंग्रेजी माध्यम के शालाओं में बदलना सरकार के लिए अच्छी शिक्षा के नाम पर आत्मप्रवंचना एवं प्रबुद्ध जनों के लिए चिंतनीय विषय है।

टेसूलाल धुरंधर पूर्व प्रांतीय संगठन मंत्री
छ.ग. शिक्षक संघ एवं भाजपा विधायक
प्रत्याशी विधानसभा बलौदाबाजार

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