किसानों के मान-सम्मान और स्वाभिमान का तिहार, जो कृषि संस्कृति और किसानी सभ्यता का तिहार है- हरेली तिहार

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🌳छत्तीसगढ़, जिसे भारत का ’धान का कटोरा’ कहा जाता है, सिर्फ कृषि प्रधान राज्य ही नहीं, बल्कि यह अपनी समृद्ध लोकसंस्कृति, रीति-रिवाज़ और त्योहारों के लिए भी प्रसिद्ध है। इन सबमें सबसे पहला और विशेष पर्व है -’हरेली तिहार’। यह पर्व न केवल कृषि से जुड़ा हुआ है, बल्कि यह छत्तीसगढ़ी जीवनशैली की आत्मा को अभिव्यक्त करता है। इसके अलावा यह लोकपर्व कृषि जीवन की शुरुआत का प्रतीक के साथ लोक परंपराओं, पर्यावरण प्रेम और सामाजिक एकता का भी उत्सव है। छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत में ’हरेली त्योहार’ का विशेष स्थान है। हरेली शब्द ही हरियाली से निकला हुआ है और इस त्योहार का उद्देश्य भी है कृषि, प्रकृति, पशुधन और स्वास्थ्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना। दूसरे शब्दों में हरेली शब्द “हरियाली” से आया है, जो वर्षा ऋतु की ताजगी और खेतों की हरितिमा को दर्शाता है।

यह पर्व ग्रामीणों के लिए सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि एक भावनात्मक, सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सव है, जो मिट्टी से जुड़े उनके प्रेम को दर्शाता है। परंपरागत रूप से हरेली में हल-बैल, कृषि उपकरणों और वृक्षों की पूजा की जाती है। यह लोक मानस की उस धारणा को पुष्ट करता है; जहां प्रकृति व पुरुषार्थ के मध्य गहन सामंजस्य स्थापित होता है। परंतु वर्तमान समय में, यह पर्व केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्तित्व की पुनर्पुष्टि करता है।

🌿 हरेली कब मनाया जाता है?
छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में यह पर्व सावन माह की अमावस्या को मनाया जाता है, जब खेतों की मिट्टी अपनी नम्रता में लिपटी होती है, और आसमान से अमृत-सा जल बरसता है।

🧑‍🌾 क्यों मनाया जाता है?
हरेली का पर्व मुख्य रूप से किसानों का पर्व है। इस दिन तक किसान धान की खेती का एक चरण पूरा करता है और कृषि कार्य से संबंधित हल, कुदाली एवं फावड़े जैसे औजारों का काम पूरा होने पर औजारों की पूजा करके किसान कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए; उन्हें विश्राम देता है। यह परंपरा दर्शाती है कि किसान अपने औजारों को देवता की तरह मानता है, क्योंकि वही उसके जीवन का आधार होते हैं। कृषक न केवल भूमि के उपजाऊपन का उत्सव मनाता है, बल्कि श्रम को भी देवत्व प्रदान करता है। इसके अलावा खेती – किसानी की व्यस्तताओं से राहत होने पर खुशी में स्थानीय ग्रामीण पकवान गुलगुला और मीठा चीला बनाते है। यह पारंपरिक व्यंजन किसान लोग घर में तैयार कर खाते और खिलाते हैं। इन पकवानों में छत्तीसगढ़ की मिट्टी की खुशबू, स्वाद और अपनापन झलकता है।

🌱 हरेली तिहार कैसे मनाया जाता है?
त्यौहार में चारों ओर धरती हरियाली से भरी होती है। गांव के पौनी या बैगा घर – घर जाकर गांव के सभी घरों के चौखट में नीम की डालियां खोंचकर बधाइयां देते हैं; जिसे बुरी शक्तियों से सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। नीम को प्राकृतिक औषधि के रूप में भी पहचाना जाता है।

🐂 इस दिन गांव के युवक/युवतियां लोग छत्तीसगढ़ के पारंपरिक खेल गिल्ली- डंडा, भौंरा, फुगड़ी, खो-खो, डंडा- पचरंगा आदि खेलते है। सबसे प्रमुख खेलों में से एक है -’गेड़ी चढ़ना’। बच्चे बांस की बनी लाठी पर चढ़कर दौड़ लगाते हैं। यह न केवल खेल है, बल्कि संतुलन और साहस की परख भी है।यह परंपरा आज भी ग्रामीण इलाकों में जीवित है और यह दर्शाती है कि हमारी संस्कृति में स्वास्थ्य और परंपरा साथ-साथ चलते हैं। पूर्ववर्ती छत्तीसगढ़ सरकार ने भी इस खेल को प्रोत्साहित करते हुए ’गेड़ी दौड़’ को एक राज्यस्तरीय प्रतियोगिता का रूप दिए थे। ग्रामीण क्षेत्रों में बैल दौड़, कुश्ती और पारंपरिक खेलों का आयोजन होता है। महिलाएं घरों में पीठा, चिला, फरा जैसे पारंपरिक व्यंजन बनाती हैं और परिवार के साथ मिलकर त्योहार का आनंद लेती हैं।

🌏आधुनिक युग में हरेली का महत्व:-
आज जब आधुनिकता और शहरीकरण तेजी से बढ़ रहे हैं, ऐसे समय में हरेली जैसे त्योहारों की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। ये त्योहार हमें प्रकृति से जुड़ने, पारंपरिक जीवनशैली को अपनाने और सामूहिकता में जीने का संदेश देते हैं। पूर्ववर्ती सरकार द्वारा ’हरियर छत्तीसगढ़ अभियान’ की शुरुआत भी इसी परंपरा से प्रेरित था, जहाँ हरियाली और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा दिया गया था।

शहरों में बसे हुए लोग; जिनसे अपनी जड़ों का सम्बन्ध विच्छेद हो गया है, उनके लिए हरेली पुनर्संवाद का निमंत्रण है- एक पुकार जो कहती है, “वापस लौटो मिट्टी की ओर, जहाँ से जीवन ने अंगड़ाई ली थी।” वर्तमान समय में कृत्रिमता और बाज़ारीकरण ने जीवनशैली को स्वाभाविकता से दूर कर दिया है, तब हरेली जैसे पर्व हमारे सांस्कृतिक पुनःस्थापन के संवाहक बन सकते हैं। यह पर्व जैविक खेती, देसी बीजों और लोक-परंपराओं को पुनर्जीवित करने की प्रेरणा देता है। जब संपूर्ण विश्व जलवायु परिवर्तन, पारिस्थितिक असंतुलन और पर्यावरणीय आपातकाल की कगार पर खड़ा है, तब हरेली जैसे उत्सव वैश्विक विमर्श में महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह एक लोक-पहल है, जो बिना किसी सरकारी नीति के, प्रकृति संरक्षण और स्थायी जीवनशैली का संदेश देती है। हरेली हमें सिखाता है कि जड़ों से जुड़कर ही हम समृद्धि की शाखाएं फैला सकते हैं।

🤝 हरेली का सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव-
जहाँ आधुनिक त्योहारों में उपभोक्तावाद की चमक है, वहीं हरेली सामूहिकता, समरसता और परंपरा के गहन सौंदर्य से ओतप्रोत है। यह पर्व स्थानीयता का उत्सव है, जिसमें ना कोई प्रदर्शन है और ना ही कोई कृत्रिमता। यह जन-जीवन की वास्तविकताओं के सबसे निकट खड़ा पर्व है।

यह त्योहार गांवों में सामूहिकता, सहयोग और प्रकृति के प्रति श्रद्धा को प्रकट करता है। इस प्रकार हरेली छत्तीसगढ़ का पहला त्योहार होने के नाते न केवल कृषि चक्र की शुरुआत का संकेत देता है, बल्कि यह प्रदेश की आत्मा को भी उजागर करता है। यह पर्व हमें प्रकृति से जुड़ने, परंपराओं को सहेजने और सामाजिक संबंधों को मजबूत करने की प्रेरणा देता है। हरेली की हरियाली में छत्तीसगढ़ की संस्कृति की गहराई और जीवन की सरलता झलकती है। ऐसा लोक पर्व जो छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, पर्यावरणीय चेतना और सामाजिक समरसता को एक सूत्र में पिरोता है।

हरेली केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि यह छत्तीसगढ़ के मन, मिट्टी और मेहनत का प्रतीक है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि जीवन का आधार प्रकृति, परिश्रम और परंपरा है। जब किसान अपने औजारों को सजाता है, जब बच्चे गेड़ी पर चढ़ते हैं, जब नीम की डालियाँ दरवाजे पर लटकती हैं, तब लगता है जैसे पूरी धरती मुस्कुरा रही हो। हरेली हमें सिखाता है कि सादगी में भी सौंदर्य होता है, मिट्टी में भी शक्ति होती है, और परंपरा में भी प्रगति छिपी होती है।

नव दृष्टिकोण से हरेली को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता-आज आवश्यकता है कि हरेली जैसे लोकपर्वों को केवल ग्रामीण परिवेश की घटनाएं न मानकर, शहरी जीवन में भी पुनःस्थापित किया जाए। स्कूलों, विश्वविद्यालयों और सामाजिक संस्थानों में इस पर्व के आयोजन से नई पीढ़ी में अपनी जड़ों के प्रति जिज्ञासा और सम्मान का भाव विकसित होगा। हरेली के माध्यम से हम यह सीख सकते हैं कि जीवन केवल उपभोग नहीं, बल्कि प्रकृति से तादात्म्य और परिश्रम से परिपूर्ण समर्पण भी है।

वर्तमान में वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण और सांस्कृतिक क्षरण के दौर में हरेली एक ऐसा दीप है; जो गांव की चौपाल से लेकर विश्व मंच तक रोशनी बिखेर सकता है। हरेली पर्व उस मूक संवाद का प्रतीक है; जो किसान और प्रकृति के मध्य घटित होता है। यह संवाद केवल अन्न के रूप में नहीं, संस्कृति के रूप में फलता-फूलता है।

आजकल जब हम अतीत से कटकर आधुनिकता की अंधी दौड़ में व्यस्त हैं, हरेली हमें ठहरकर सोचने का अवसर देता है कि क्या हम अपने मूल से दूर हो चुके हैं? और यदि हाँ, तो हरेली हमें उस ओर लौटने की रहनुमा बन सकती है। यह परंपरा स्वच्छता और स्वास्थ्य दोनों का सामूहिक पाठ है, जिसे आज की महामारी-प्रप्रवण दुनिया में पुनः आत्मसात करना होगा।

ऐसे हमर छत्तीसगढ़ के पहली लोक परब सुग्घर हरिहर तिहार ’हरेली’ के आप सब ल झांपी-झांपी, टुकना-टुकना बधाई…

कृषि और किसान!
हरेली का मूल आधार !!

#हरेली_तिहार

– डॉ. जीतेन्द्र सिंगरौल,
तथागत बुद्ध चौक, मोछ (तखतपुर),
जिला बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 495003
मोबाईल-9425522629, 8319868746
ईमेल:- jkumar001@gmail.com

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