नवरात्रि का दूसरा दिन-मेघालय और हिमाचल से रिपोर्ट:मन्नत के लिए कबूतर के पर कतरते हैं, मां की ज्योति बुझाने अकबर ने खोदी थी नहर

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लुम सोहपेटबनेंग ऊमियम। यह मेघालय की राजधानी शिलॉन्ग से 25 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर बसा एक गांव है। यहां ज्वाला माई का मंदिर है। मंदिर में कई दशकों से निभाई जा रही तीन परंपराएं दूसरे मंदिरों से बिल्कुल अलग हैं। पहली बिना छौंक की खिचड़ी, दूसरी मन्नत वाले कबूतर और तीसरी घर से लाए गए चावल की।

मंदिर की देखभाल, पूजा-पाठ और रीति-रिवाज निभाने की जिम्मेदारी कई दशकों से दो परिवारों के पास है। इनमें एक परिवार भारत का तो दूसरा नेपाल का है। खास बात तो ये है कि ईसाई बाहुल्य इस इलाके में, ईसाई समुदाय भी मंदिर की मान्यताओं पर अटूट विश्वास रखता है।

टैक्सी से मंदिर पहुंचते ही सबसे पहले मैं यहां के पुजारी पंडित टीकाराम पराजलि से मिली। मैंने अपने आने की सूचना उन्हें पहले ही दे दी थी। मिलते ही उन्होंने कहा, पहले नीचे मंदिर प्रांगण में चलते हैं।

वहां एक महिला चूल्हे पर कुछ पका रही है। मैंने पंडित से पूछा- चूल्हे पर ये महिला क्या बना रही हैं?

पंडित ने कहा, ‘वो मेरी पत्नी हैं, माता रानी के लिए खिचड़ी का भोग बना रही हैं। मां को चूल्हे पर बना भोग ही लगाया जाता है। इस खिचड़ी में दाल कितनी डलेगी, इसका भी एक निश्चित हिसाब होता है। जैसे डेढ़ किलो दाल में एक किलो चावल डालते हैं। इसमें छौंक नहीं लगाया जाता। ये सिर्फ उबालकर बनाई जाती है।’

मंदिर 1946 में बना है, लेकिन मंदिर का इतिहास तो कई हजार साल पुराना है। मान्यता है कि जिस जगह अभी मंदिर है, वहां से सालों पहले एक ज्वाला पहाड़ से निकल ऊपर आसमान की तरफ गई थी। उस ज्वाला की चमक से पूरा आसमान चमकने लगा था।

उस चमत्कारिक ज्वाला ने ही यहां अपनी स्थापना के लिए कहा। तब से यहां ज्वाला माई का मंदिर है।

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