भारत में राजनैतिक दलों द्वारा पोषित अध्यात्म आज भी अंग्रेजपरस्त नीति पर आधारित – पुरी शंकराचार्य

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भुवन वर्मा, बिलासपुर 24 मई 2020

जगन्नाथपुरी — स्वतंत्रता संग्राम के चरम चरण में अंग्रेजो ने भारत का आकलन कर भारत को दिशाहीन करने की भावना से एक कूटनीति का प्रयोग किया कि राजनेताओ में से ही किसी वरिष्ठ राजनेता को महात्मा के रूप में ख्यापित किया जाये तो व्यासपीठ से सम्बद्ध जो आचार्य परम्परा के शंकराचार्य आदि वह अन्यथा सिद्ध हो जायेंगे। किसी की उपयोगिता को आप निरस्त कर दीजिये उसका आस्तित्व विलीन हो गया , अन्यथा का अर्थ क्या है , यह न्याय दर्शन का शब्द है वेदांत में भी प्रयुक्त होता है। किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति को आप छल , बल डंके की चोट से अन्यथा सिद्ध कीजिये। ये हो तो नहीं सकता लेकिन आस्तित्व रहने पर भी उपयोगिता समाप्त हो गयी , निरस्त कर दिया गया। सबसे पहले रविन्द्रनाथ टैगोर जी ने गांधी जी को महात्मा शब्द से संबोधित किया यह इतिहास है। वह अनुकृति विश्व व्यापी बन गयी और एक राजनेता जब संत के रूप में ख्यापित कर दिये गये । उसके पीछे अंग्रेजो की कूटनीति थी कि अपने आप सनातन वर्ण व्यवस्था के पक्षधर स्वामी श्री करपात्री जी महाराज आदि अन्यथा सिद्ध हो जाये। यह कूटनीति जो अंग्रेजो ने दी नकलची भारत ने इसे बहुत विकसित किया। भारत के प्रथम प्रधानमंत्रीजी ने अंग्रेजो की कूटनीति को विकसित करने की भावना से भारत साधू समाज की स्थापना की , भारत साधू समाज का उद्देश्य क्या था ? स्वामी करपात्री जी महाराज , हमारे गुरुदेव के सानिध्य में , पूरा व्यस्तंत्र आ गया था , नेपाल , भूटान , पाकिस्तान , बांग्लादेश , और भारत इन सब देशो के संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान , समाज शास्त्र व अर्थशास्त्र के पारखी मनीषी , तीनो पीठ के शंकराचार्य श्रृंगेरी वाले प्रायः सम्मिलित नहीं होते थे , बाकि सभी धर्मसंघ के मंच पर होते थे। उस प्रारूप को नष्ट करने के लिये भारत साधू समाज की रचना की गयी , यहाँ तक कह दिया नेहरु जी ने जो व्यक्ति भारत साधू समाज की सदस्यता ग्रहण नहीं करेगे वे भिक्षुक गिने जायेंगे और जेल के शिकंजे में डाल दिये जायेंगे। फिर कूटनीति चली और गुलजारीलाल नंदा को आगे करके भारत साधू समाज की स्थापना की गयी लेकिन अखंडानंदजी महाराज आदि जो भी अध्यक्ष बनाये गये वे सभी हमारे पूज्य गुरुदेव के अनुगत हो गये। हमारे पूज्य गुरुदेव के कारण भारत साधू समाज की योजना निरस्त हो गयी। नेहरु जी को जहा जाना था देह त्याग के बाद वहा पहुँच गये उस समय मै दिल्ली में इसी वेश में था , जो कुछ हुआ मुझे मालूम है। उसके बाद विनोबा जी जो कि गाँधी जी के अनुयायी थे उनको राष्ट्रिय संत के रूप में उदभाषित किया गया और उनकी योजनाओं को कांग्रेस ने पूरा बल दिया फिर विनोबा जी भी चल बसें।

अब मान्य दलाई लामा जी को विश्व हिन्दू परिषद् ने , आरएसएस ने , कांग्रेस ने , भाजपा ने , सपा ने , बसपा ने , नितीश जी की पार्टी ने , लालूजी की पार्टी ने सबने भारत के सार्वभौम धर्म गुरु के रूप में स्वीकार किया। शंकराचार्य का स्थान भारत में आज सरकार की दृष्टि में मान्य दलाई लामा जी के सामने नगण्य माना जाता है। हमारे रामदेव बाबा का महान उत्सव में दलाई लामा जी को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाते है। विश्व हिन्दू परिषद् , आरएसएस के जितने आध्यात्मिक ,धार्मिक ढंग के कार्यक्रम होते है उसमे दलाई लामा जी को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाता है। उसके बाद विश्व हिन्दू परिषद् ने क्या किया ऊपर तो दलाई लामा जी को रखा और नीचे धर्म संसद बना ली। धर्म संसद का अर्थ था कि उसके माध्यम से भाजपा के प्रचारक संत और कथावाचक बन जाये और हम भाजपा के माध्यम से शासन करते रहें। अब चारो कुम्भ पर अधिकार हो गया धर्म संसद का , उनके सदस्यों का और कोई भी दंडी स्वामी को उद्गोषित कर देते है शंकराचार्य के रूप में , चार शंकराचार्य होते ही है उनके मंच पर होते है मतलब , किसी भी दंडी स्वामी को बैठाकर कहते है चार शंकराचार्य हमारे समर्थन में है। मिशन के संत बनाये जाने लगे , रामकृष्ण मिशन सबसे पहले , तब दयानन्द मिशन , चिन्मय मिशन और भी बहुत से मिशन है। इनमें जो वैकल्पिक संत बनाये गये वे सभी अंग्रेजी पढ़े लिखे , डाक्टर , इंजिनियर ढंग के थे उनको दो ढाई वर्ष का प्रशिक्षण दिया गया था। अब यह समझने की आवश्यकता है कि जिसके बिना राष्ट्र चल नहीं सकता उसकी कितनी दुर्दशा है ? हुर्रियत के नेताओ ने प्रतिबंधित उल्फा के नेताओ ने संत , कथावाचक बनाकर घुमाना प्रारम्भ किया , रामायण , महाभारत के कथावाचक , ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य व्यक्तियों को , उसके बाद पोप महोदय , उनके जो प्रकल्प चलते है उनके पादरियों ने कथावाचक संत बनाकर घुमाना प्रारंभ किया , मओवादियो ने संत बना दिये कि एक संत को इनका समर्थन प्राप्त है !

अरविन्द तिवारी की रपट

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