निर्गुण निराकार ब्रह्म के विविध स्वरूप – पुरी शंकराचार्य

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निर्गुण निराकार ब्रह्म के विविध स्वरूप – पुरी शंकराचार्य

भुवन वर्मा बिलासपुर 11 फ़रवरी 2021

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

जगन्नाथपुरी — हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू धर्म के प्रणेता पुरी पीठ के 145 वें श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज जी परमात्मा के स्वरूप की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि निर्गुण निराकार ब्रह्म का सगुण निराकार और सगुण साकार स्वरूप ही अवतार है। पुरी शंकराचार्य जी कहते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता में परमात्मा के सम्बन्ध में वचन है कि आप निर्विशेष अर्थात् निरवयव हैं। घटत्वादि सामान्य से घटादि विशेष की अभिव्यक्ति के तुल्य भी आपकी अभिव्यक्ति सम्भव नहीं। आप निरीह अर्थात् आकाशादि के तुल्य निष्क्रिय हैं, अतएव कपाटादि के उद्घाटन के तुल्य क्रियाकलाप से भी आपका अभिव्यञ्जन सम्भव नहीं।

अर्जुन कहते हैं कि हे अनुग्रहविग्रह प्रभो ! आप आत्ममाया से ही इस अद्भुत बालविष्णुरुप से हम दोनों को दृषटिगोचर हो रहे हैं। आप परमाणु और प्रधानपरिभिन्न ज्योति:स्वरूप ब्रह्मरूप आद्य कारण हैं। आप ज्ञानगुणयुक्त या ज्ञानपरिणामसंप्राप्त या मायानिष्ठ विक्षेपशक्तिसंप्राप्त परिणामी तथा तारतम्ययुक्त आत्मस्वरूप ब्रह्म नहीं , अपितु निर्गुण , निर्विकार , सत्तामात्र-एकरस निर्विशेष ब्रह्मस्वरुप हैं। आप चुम्बकाश्मवत् अथवा गन्धवत् निरीह- निष्क्रिय होते हुये ही सन्निधिमात्र से जगत्कारण हैं। उक्त रीति से निर्गुण ब्रह्म की मायायोग जगत्कारणता और लीलायोग से श्रीकृष्णादिरूप से अवताररूपता सिद्ध है। अव्यक्त , आद्य , विभु स्वयञ्ज्योति , निर्गुण , निर्विकार , सत्तामात्र , निर्विशेष निरीह की एकरूपता है । व्यक्त , कार्य , परिच्छिन्न , हास्य , सगुण , सविकार , अनित्य , सविशेष और सचेष्ट की एकरूपता है। अव्यक्तादि की तत्वरूपता सिद्ध है और अवताररूपता असिद्ध । व्यक्तादि के मूल में व्यक्तादि की मान्यता अनर्गल है, अतः व्यक्तादि का कारण अव्यक्तादि को मानना अनिवार्य है। व्यक्तादि की संज्ञा जगत् है। व्यक्तादि में समाशक्त की संज्ञा जीव है।

जीव तथा जगत् के नियामक की संज्ञा जगदीश्वर है। जीव, जगत् और जगदीश्वर के मौलिक रूप की संज्ञा अव्यक्तादिसंज्ञक तत्व है। अव्यक्तादिसंज्ञक तुरीय — कूटस्थ ब्रह्मतत्व बीजोपादान मृत्तिका तुल्य है, प्राज्ञेश्वर बीजतुल्य है। तैजस-हिरण्यगर्भ अंकुरतुल्य है। विश्व-वैश्वानर शाखा–प्रशाखापुष्पतुल्य है। श्रीराम , कृष्ण तथा शिवादि फलसदृश हैं। फल में बीज और बीजोपादान सन्निहित होता है और फल अंकुरादि से विलक्षण तथा रसिकों का आकर्षण केन्द्र और भावुकों का भोग्य होता है ; तद्वत् अवतारविग्रह में कारण ब्रह्म और कारणातीत परब्रह्म सन्निहित होता है और वह प्राज्ञेश्वरादि से विलक्षण रसिकों का आकर्षण केन्द्र और भावुक भक्तों का भोग्य होता है तथा मुक्त मुनीन्द्र का मृग्य एवम् अविद्या , काम और कर्म से असंस्पृष्ट निरावरण ब्रह्म होता है ।

कहा गया है कि मुक्त मुनियों के अनुसन्धेय किसी अद्भुत फल को देवकी फलती है, उसका पालन यशोदा करती है, परन्तु उसका यथेच्छ उपभोग तो रासलीलादि में सन्निहित गोपियाँ ही कर पाती हैं। निर्गुणनिराकार ब्रह्म का सगुणनिराकार और सगुणसाकार स्वरूप अवतार है। निर्गुणनिराकार ब्रह्म जल, स्थल और नभ में व्याप्त विद्युत्– तुल्य है। सगुण — निराकार ब्रह्म पंखादि यन्त्रों के सञ्चालन में विनियुक्त विद्युत्तुल्य है। सगुणसाकार ब्रह्म बल्व तथा मेघमण्डल के माध्यम से व्यक्त विद्युत्तुल्य है।

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