सिद्धि, सुख और परम गति की सबको चाह – पुरी शंकराचार्य

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सिद्धि, सुख और परम गति की सबको चाह – पुरी शंकराचार्य

भुवन वर्मा बिलासपुर 22 नवम्बर 2020

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

जगन्नाथपुरी — आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रीगोवर्द्धनपीठ द्वारा विश्व कल्याण की भावना से सनातन वैदिक मानबिन्दुओं के अस्तित्व और आदर्श की रक्षा एवम् समाज के सभी वर्गों में परस्पर सद्भावपूर्वक सम्वाद और सामञ्जस्य के प्रोत्साहन हेतु श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज के पावन सान्निध्य में राष्ट्रीय एकता, अर्थनीति, विज्ञान, राष्ट्रीय सुरक्षा, राजधर्म एवम् हिन्दू राष्ट्रसंघ की स्थापना आदि विभिन्न विषयों पर सङ्गोष्ठियों का आयोजन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यान्त्रिक विधा से किया जा रहा है । इन सङ्गोष्ठियों में देश विदेश के धर्माचार्यों, अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, राजनितिज्ञों, सेना के तीनों अंगों के प्रतिनिधियों एवम् प्रवासी भारतीयों ने उत्साह और अपनत्वपूर्वक भाग लेकर अपने विचार रखे और पूज्य शंकराचार्य जी से मार्गदर्शन और आशीर्वाद प्राप्त किया ।

इसी क्रम में हिन्दू राष्ट्र संघ के दो दिवसीय अष्टम चरण के अधिवेशन के प्रथम दिवस पर वरदाज पाणीग्रही एवं श्रीमती पाणीग्रही के मंगलाचरण से कार्यक्रम आरम्भ हुआ । उद्बोधन के क्रम में श्रीयुत तेजावर स्वामी जी उडुपी, नरेश रावल किशन सिंह जी राजस्थान, लक्ष्मीकांत भट्टाचार्य असम, अक्षय कुमार जैन भुवनेश्वर, साध्वी समर्पिता जी उत्तर काशी, सत्यरंजन वोरा असम, एडीएन बाजपेयी जबलपुर ने भाव व्यक्त किया, संगोष्ठी का संचालन हृषिकेश ब्रह्मचारी जी ने किया ।

पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी ने अपने उद्बोधन में संदेश देते हुये उद्घृत किया कि विश्व स्तर पर कूटनीति के मर्मज्ञों ने भारत के अस्तित्व और आदर्श को विलुप्त करने का जो प्रयास किया इससे भारत तो प्रभावित हुआ ही परन्तु इसके प्रभाव से पूरा विश्व ही दिशाहीन हो चुका है । किसी व्यक्ति को पद सुलभ होने पर पद का उपभोक्ता के स्थान पर दायित्व का निर्वाहक बनने पर जनकल्याण सम्भव होता है । निसर्गसिद्ध बुद्धि या जीव स्वभावतः सत्य का पक्षधर होता है, इस सिद्धांत के आधार पर कार्य करने की आवश्यकता है । पाश्चात्य जगत् के द्वारा सुनियोजित तरीके से हमारे मानबिन्दुओं को खण्डित करने का उपक्रम चलाया गया है, उस कुचक्र के चक्रव्यूह का वैदिक वाङ्गमय की विधा से व्यूहरचना कर चक्रव्यूह में प्रविष्ट होकर उसको विदीर्ण कर सुरक्षित बाहर निकलने की विधा अपनाने की आवश्यकता है । किसी कार्य की सफलता के लिये आवश्यक है कि विवेक पूर्वक विचार करने के पश्चात ही कार्यारम्भ होना चाहिए । राजनीति का अलग अलग संदर्भों में राजधर्म, क्षात्रधर्म एवं दंडनीति आदि अर्थ प्रयक्त होता है । नीति या व्यवस्था ऐसी हो कि कम से कम सन्मार्ग पर चलने में समुत्सुक व्यक्ति जीवन यापन के लिये कुपथ पर चलने को बाध्य न हो जाये । इस सनातन सिद्धांत को विश्व स्तर पर ख्यापित करने की आवश्यकता है कि सबको सफलता, सुख एवं दुख से अतिक्रांत जीवन की चाह होती है, यह हमारे सिद्धांत का दृष्ट फल है, इसको प्राप्त करने के लिये सनातन सिद्धांत के साथ साथ इसके क्रियान्वयन की वैदिक विधा को अपनाना भी परम आवश्यक है अन्यथा मन:कल्पित विधा के प्रयोग से अभीष्ट फल के स्थान पर विपरीत परिणाम ही अपेक्षित होगा ।

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