हमारी उदारता के मूल में हमारा ईश्वर है — पुरी शंकराचार्य
हमारी उदारता के मूल में हमारा ईश्वर है — पुरी शंकराचार्य
भुवन वर्मा बिलासपुर 9 नवम्बर 2020
अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
जगन्नाथपुरी — हिन्दू राष्ट्रसंघ एवं हमारा प्यारा हिन्दु द्वीप के प्रणेता हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाभाग के पावन सानिध्य एवं दिव्य मार्गदर्शन में ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्धनमठ पुरी पीठ में हिन्दू राष्ट्र संघ अधिवेशन के दो दिवसीय सप्तम चरण के द्वितीय दिवस को अर्पिता देव एवं डाॅ० सुभ्रता चट्टोपाध्याय ने मंगलाचरण प्रस्तुत किया। इस अवसर पर प्रो०बी०पी० शर्मा उत्तरप्रदेश , डॉ० चित्रा हांगकांग, डॉ० उषाकर झा अमेरिका, प्रशांत आचार्य भुवनेश्वर, नरेन्द्रन मद्रास, डॉ०केशव अग्निहोत्री कनाडा, मिलिंद कनाडे न्युजीलैंड, महेन्द्र सोनी लखनऊ, सन्तोष मूंधड़ा नासिक, पूनम गुप्ता अमेरिका, प्रेम चंद्र झा और हृषिकेश ब्रह्मचारी ने अपने भाव व्यक्त किया। इस अधिवेशन में पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी ने उद्बोधन में कहा कि वैदिक वाङ्गमय के ग्रन्थों का अनुशीलन विश्व के लिये हितप्रद है । उन्होंने कहा कि गुरु, ग्रंथ और गोविन्द की कृपा से हमें सनातन सिद्धांत के क्रियान्वयन के लिये व्यूहरचना का ज्ञान है तथा मार्ग में उत्पन्न अवरोध रूपी चक्रव्यूह में प्रवेश करना उसे विदीर्ण करना तथा बाहर निकलने की विधा ज्ञात है । हिन्दु राष्ट्रसंघ के उद्भव तथा इसके माध्यम से सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिये सत्य सहिष्णुता के क्रमिक अभिव्यक्ति को प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज में हृदयंगम हेतु प्रकल्प चलाने की आवश्यकता है। सत्य / तथ्य का पक्षधर होना बुद्धि / जीव का स्वभाव है । यदि विश्व को विभीषिका से बचना है तो सनातन वैदिक महर्षियों द्वारा प्रदत्त मार्ग अपनाना ही होगा। आगे सनातन सिद्धांत को हिन्दूओं एवं अन्य धर्मों के बीच स्वीकार्यता हेतु आवश्यक स्वस्थ विधा की चर्चा करते हुये संकेत किया कि इसके लिये हमारे हर काल एवं हर परिस्थिति में मान्य व प्रासंगिक भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, उत्सव– त्यौहार, रक्षा, सेवा, विवाह और न्याय व्यवस्था की उपयोगिता को प्रसारित करना है। हमारी उदारता के मूल में हमारा ईश्वर है, वह जगत बनता भी है और बनाता भी है जबकि अन्य धर्मों के ईश्वर सिर्फ जगत बना सकते हैं परन्तु जगत बन नहीं सकते, इसलिये उनका अवतार नहीं होता। हमारा ईश्वर श्रीराम एवं श्रीकृष्ण आदि के रूप में अवतार भी लेते हैं । ईश्वर उपादान कारक हैं तथा माया या प्रकृति निमित्त कारक है । स्वप्न अवस्था में हम स्थूल शरीर को त्यागकर पृथ्वी, पानी, तेज, वायु, आकाश, स्थावर, जङ्गम प्राणी, दिक्पाल आदि बनते हैं एवं गाढ़ी नींद में सूक्ष्म शरीर का त्याग कर त्रिविध ताप, मृत्यु के भय से मुक्ति एवं द्वंद्व से मुक्त हो जाते हैं सिर्फ अज्ञान का बीज शेष रह जाता है , यही बीज अनुकूल परिस्थिति में फिर से समस्त विकारों को जन्म देता है । जिस प्रकार बीज को भूनने पर उसमें अंकुरण की क्षमता समाप्त हो जाती है वैसे ही तत्त्व ज्ञान से अज्ञान मिटता है और हम ईश्वर के सन्निकट हो जाते हैं । सब जीवों में अंतर्निहित एकत्व की भावना को ध्यान में रखते हुये यह दृष्टिकोण हो कि हम सब सच्चिदानन्द सर्वेश्वर के पुत्र होते हुये अंश के रूप में प्राणी हैं, प्राणी के रूप में मनुष्य हैं, मनुष्य होते हुये स्त्री पुरुष फिर हिन्दू तत्पश्चात हिन्दू होते हुये वर्णाश्रम व्यवस्था के अंग सिद्ध होते हैं। यह माया की चमत्कृति है कि वह जीव, जगत् एवं जगदीश्वर के एकत्व को विभिन्न रूपों में परिलक्षित कराती है । हममें स्वभाव सिद्ध ज्ञान एवं कर्म का सीमित प्रभाव रहता है, शास्त्रसम्मत विधा से परिमार्जन के द्वारा हम परमात्मा के सन्निकट पहुंँचते हैं ।