अक्टूबर में होता है धान का कंडुआ रोग – अलिशा
अक्टूबर में होता है धान का कंडुआ रोग- अलिशा
भुवन वर्मा बिलासपुर 29 अक्टूबर 2020
रायपुर । धान का कटोरा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ वर्तमान समय में कंडुआ रोग से काफ़ी ज़्यादा ग्रसित है और यही वजह है कि धान की उपज पहले के मुकाबले कम हो चुकी है, खरीफ फसलों में धान को जून- जुलाई के महीनों में बोया जाता है और अक्टूबर मध्य से लेकर नवम्बर के बीच इसकी कटाई होती है। किसान खरीफ मौसम में धान की खेती को प्रमुख मानते हैं पर हर वर्ष धान में कटाई के पूर्व अक्टूबर माह में कंडुआ रोग हो जाने से किसानों को काफ़ी नुक़सान हो जाता है। कंडुआ रोग जिसे अंग्रेज़ी में फाल्स स्मट कहा जाता है और किसान बोलचाल की भाषा में इसे बाली का पीला रोग भी कहते हैं। यह फफूंद जनित रोग है और इसका द्वितीय संक्रमण वायु जनित बीजाणु द्वारा होता है।
यह रोग पुष्पन या उसके बाद की व्यवस्था में आता है, प्रभावित बालियों में दाने बड़े मखमली गेंद के आकार में बदल जाते हैं। और छूने पर हाथ में काले अथवा पिले रंग का पाउडर लग जाता है। यह रोग हवा द्वारा फूलों को संक्रमित करता है। इसको कई किसान हल्दिया रोग भी कहते हैं, यह रोग धान की 60 से 90 प्रतिशत फसल को प्रभावित कर सकता है साथ ही धान में अधिक यूरिया के उपयोग से इस रोग को बढ़ावा मिलता है।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर में 24 हज़ार से भी ज़्यादा धान की किस्मों का संग्रहालय है जो की पुरे देश में सबसे अधिक है, और यहाँ के कृषि वैज्ञानिकों ने कंडुआ रोग से बचने के लिए उन्नत किस्म के धानों का परिक्षण भी किया है और अब भी इस रोग से धान को बचाने बहुत से परिक्षण निरंतर किए जा रहे हैं, जिससे किसानों की इस समस्या का निवारण आसानी से किया जा सके।
इस कंडुआ रोग के निवारण के लिए कृषि वैज्ञानिक किसानों को नमक के घोल से बीजोपचार कर बोवाई करने की सलाह देते हैं। साथ ही मेड़ों से खरपतवार निकालने की सलाह देते हैं जिससे रोग के कारक दूसरे खेतों में न जा पाए। कृषि वैज्ञानिक रसायन द्वारा नियंत्रण का सुझाव भी देते हैं जैसे नर्सरी में बुवाई से पूर्व बीज का उपचार करने के लिए बाविस्टिन 10 ग्राम + 1 ग्राम स्ट्रेप्टोसायक्लीन की मात्रा को 10 लीटर पानी के घोल में मिलाकर बीज को 10 से 12 घंटे भीगा देना चाहिए। कापर ऑक्सिक्लोराइड 50% 1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा को 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर 10% फूल आने की अवस्था में छिड़काव करना चाहिए। और समस्या अधिक होने पर निकटतम कृषि विज्ञान केंद्र की सहायता लेनी चाहिए। परंतु रसायन का उपयोग कृषि विज्ञान केंद्र अथवा कृषि वैज्ञानिक की सलाह पर ही करना चाहिए वरना रोग से पहले फसल गलत रसायन से ही बर्बाद हो जाएगी। साथ ही रोग ग्रसित बीजों को अगली बोवाई में इस्तेमाल न करने की सलाह भी दी जाती है। और जल्दी बोवाई करने पर भी इस रोग के होने की आशंका कम होती है, क्योंकि फफूंद को उचित तापमान और नमी की कमी हो जाती है और फफूंद संक्रमण फ़ैलाने मे असफल हो जाता है।
शेख अलिशा
स्नातकोत्तर (कीट विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर
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Сверление глубинных источников на водные ресурсы — это начальный этап в организации личной системы снабжения водой дачного коттеджа. Этот этап включает в себя предварительное обследование, исследование почвы и гидрогеологическое обследование местности, чтобы обнаружить наиболее удачное место для бурильных работ. Глубина скважины зависит от структуры почвы, что устанавливает её разновидность: песчаная скважина, скважина на песок или артезианская – https://techno-voda.ru/obzor-lampy-philips-uov-ss-110w-jeffektivnost-i/ . Правильно спроектированная водозаборная скважина дает качественную и бесперебойную добычу воды в любой сезон, исключая опасность пересыхания и загрязнения. Новые методы дают возможность механизировать использование скважины, делая проще её эксплуатацию для бытовых нужд.
После установки источника необходимо спроектировать водный комплекс, чтобы она оставалась надёжной и надежной. Настройка предполагает монтаж насосов, фильтрацию воды и развод водопроводной системы. Также важно рассчитать автоматическое управление, которая будет регулировать поток воды и расход жидкости. Сохранение тепла и защита от перебоев в морозы также остаются необходимыми. С квалифицированной помощью к сверлению и организации дом обеспечит загородный дом полноценным водоснабжением, гарантируя комфорт удобной и современной.
Ленинградская область известна разнообразной геологической структурой, что делает работу создания скважин на воду уникальным в каждом месте. Область имеет вариативность основ и водных структур, которые диктуют экспертный метод при нахождении точки и метки пробивки. Подземная вода может располагаться как на низкой уровне, так и погружаться на нескольких сотен, что влияет на трудоемкость бурения.
Ключевым моментом, влияющих на выбор тип скважины (https://moidachi.ru/obustroistvo/otlichie-skvazhiny-ot-kolodtsa.html ), становится состав грунтов и местоположение водоносного слоя. В Ленинградской области чаще всего строят глубокие скважины, которые дают доступ к чистой и стабильной воде из глубинных пластов. Такие скважины характеризуются надежным сроком службы и отличным качеством водоносных ресурсов, однако их бурение нуждается в больших средств и уникального оснащения.
Методы создания в регионе подразумевает использование современных устройств и средств, которые могут управляться с твердыми породами и защищать от возможные обрушения опор скважины. Важно, что следует помнить об экологические требования и правила, так как вблизи некоторых населённых городов расположены охраняемые природные ресурсы и защищенные зоны, что предполагает особый подход к буровым действиям.
Ресурсы воды из артезианских скважин в Ленинградской области известна отличной чистотой, так как она защищена от вредных веществ и наполнена гармоничный состав полезных веществ. Это делает такие водные источники востребованными для владельцев участков и компаний, которые прибегают к надежность и качество водного ресурса.
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