शब्द आत्मबोध का सर्वाधिक सन्निकट साधन है – पुरी शंकराचार्य
शब्द आत्मबोध का सर्वाधिक सन्निकट साधन है – पुरी शंकराचार्य
भुवन वर्मा बिलासपुर 28 अक्टूबर 2020
अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
जगन्नाथपुरी — ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाभाग बुद्धि , मनीषा , श्रुतियांँ और शब्दों के विशेष महत्वों को वेदोक्त अर्थों में प्रतिपादित करते हुये संकेत करते हैं कि बुद्धिमानों की वही बुद्धि , बुद्धि कहने योग्य है और मनीषियों की वही मनीषा , मनीषा समझने योग्य है, जिसके द्वारा अनृ यक्षत से सत्य को और मर्त्य से अमृत को प्राप्त करने में व्यक्ति समर्थ हो सके। अभिप्राय यह है कि इस अनित्य , अचित् और दु:खरूप शरीर तथा संसार का उपयोग सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर की संसिद्धि में करने पर ही ज्ञानशक्ति बुद्धि और मेधाशक्ति मनीषा की सार्थकता है। तत्त्व श्रवण की क्षमता से सम्पन्न बुद्धि तथा तत्त्व निर्धारण क्षमता से सम्पन्न मनीषा अवश्य ही सराहना करने योग्य है। श्रुतियांँ कर्मकाण्ड में क्रिया , कारक , और फलरूप से ईश्वर का ही विधान करतीं हैं। उपासनाकाण्ड में इन्द्रादि उपास्य देव के रूप में ईश्वर का ही वर्णन करती हैं और ज्ञानकाण्ड में ईश्वर में ही आकाशादि का आरोप करके उनका निषेध करती हैं। सम्पूर्ण श्रुतियों का इतना ही तात्पर्य है कि वे ईश्वर का आश्रय लेकर ईश्वर पर भेद का आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उनका अनुवाद करती हैं और अन्त में सबका अपवाद करके स्वयं भी ईश्वर में ही शान्त हो जाती हैं। अन्त में अधिष्ठानात्मक अद्वय ब्रह्मात्मक रूप से केवल ईश्वर ही शेष रहता है। लौकिक शब्दों की अद्भुत चमत्कृति वैदिक शब्दों के विशेष महत्त्व को कैमुतिक न्याय से सिद्ध करती है।
सुषुप्त व्यक्ति को जब नाम लेकर पुकारा जाता है, तब वह नामात्मक शब्द में सन्निहित अचिन्त्यशक्ति के अमोघ प्रभाव से जग जाता है।शब्द , गन्ध तथा गन्धयुक्त वस्तु का , रूप तथा रूपयुक्त वस्तु का , स्पर्श तथा स्पर्शयुक्त वस्तु का प्रतिपादक है। शब्द की गति शब्द तथा शब्दाभि व्यञ्जक संस्थान आकाश , वायु , तेज ,जल , पृथिवी , पाषाणदि में भी है। जो कुछ कालगर्भित तथा कालातीत है ,वह सब शब्दैक समधिगम्य है। अत एव शब्दब्रह्म परब्रह्म का सन्निकट प्रतिपादक है। जैसे दाह और प्रकाशरूप अग्नि की चिनगारियों का उद्गम स्थान अग्नि है, अत एव चिंगारियांँ अपने उपादानभूत अग्नि को दग्ध करने और प्रकाशित करने में अक्षम हैं , वैसे ही भगवद् रूप इस आत्मा में आत्मविलास रूप मन, बुद्धि, प्राण और वाक् , नेत्रादि इन्द्रियों की गति नहीं है ; अभिप्राय यह है कि ये इन्हें अपना विषय बनाने में समर्थ नहीं हैं। माना कि शब्द आत्मबोध का सर्वाधिक सन्निकट साधन है , परन्तु वह भी शब्द प्रवृत्ति अहेतुभूत एक, निर्गुण , निष्क्रिय , असङ्ग, निरूपम निरधिष्ठान आत्मा में साक्षात् चरितार्थ नहीं हो सकता।