धर्म और मोक्ष का त्याग यान्त्रिक युग की देन – पुरी शंकराचार्य

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धर्म और मोक्ष का त्याग यान्त्रिक युग की देन – पुरी शंकराचार्य

भुवन वर्मा बिलासपुर 7अकटुबर 2020

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

जगन्नाथपुरी — आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित मान्य पीठों में से एक श्रीगोवर्धन मठ पुरी के 145 वें शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज वर्तमान यान्त्रिक युग में पुरुषार्थ चतुष्टय के विलोप की संभावनाओं पर चिंता व्यक्त कर हिन्दुओं को सचेत करते हुये उद्भासित करते हैं कि इस यान्त्रिक युग में भी सनातन वैदिक आर्य हिन्दुओं का सनातन परम्परा प्राप्त कृषि , जलसंसाधन , भोजन , वस्त्र , आवास , शिक्षा , स्वास्थ्य , यातायात ,उत्सव — त्यौहार , रक्षा, सेवा , निर्यात और विवाहादि का विज्ञान विश्वस्तर पर सर्वोत्कृष्ट है ; तब स्वतन्त्र भारत में हमारी संस्कृति के अनुसार शासनतन्त्र का सुलभ ना होना तथा सत्तालोलुप , अदूरदर्शी, दिशाहीन शासनतन्त्र को किसी भी सांस्कृतिक और सामाजिक सङ्गठन के द्वारा चुनौती प्राप्त ना होना हमारे अस्तित्व और आदर्श के विलोप का मुख्य कारण है। अतः सुसंस्कृत , सुशिक्षित , सुरक्षित , संपन्न , सेवापरायण और स्वस्थ व्यक्ति तथा समाज की संरचना विश्वस्तर पर राजनीति की परिभाषा उद्घोषित कर उसे क्रियान्वित करने के लिये स्वस्थ व्यूहरचना नितान्त अपेक्षित है। इस यान्त्रिक युग में प्रगति के नाम पर धर्म एवं मोक्षप्रद ईश्वर को विकास का परिपन्थी माना जाता है। अत एव धर्म और मोक्ष नामक पुरुषार्थों का त्याग यान्त्रिक युग का विशेष उपहार है। मद्य , द्यूत , हिंसा आदि अनर्थप्रभव आर्थिक परियोजनाओं के फलस्वरूप अर्थ का पर्वयसान अनर्थ में परिलक्षित है। दरिद्रता के समस्त स्त्रोतों को समृद्धि का स्त्रोत मानने के कारण आर्थिक विपन्नता सम्भावित तथा परिलक्षित है। अश्लील मनोरञ्जन , मादक द्रव्य , कुल -शीलविहीन विवाह , देश — काल का अतिक्रमण , असंस्कृत जीवन और कुलधर्म विहीनता हेतुओं से काम पुरूषार्थ का विलोप सम्भावित तथा परिलक्षित है। प्रगति के नाम पर पुरूषार्थ विहीन मानव जीवन की संरचना भीषण अभिशाप और विचित्र विडम्बना है। परमात्मा , पुण्य और पुण्यात्मा को प्रगति के नाम पर परिपन्थी मानना , जीवन तथा जगत को संतप्त करने का भीषण अभियान है। परमात्मा की शक्ति प्रकृति , प्रकृति के परिकर आकाश , वायु , तेज , जल तथा पृथ्वी को विकास के नाम पर विकृत , दूषित तथा क्षुब्ध करना स्वयं के तथा सबके हित पर पानी फेरना है। पृथ्वी के जङ्गम रूप गोवंश को विकास के नाम पर विकृत , क्षुब्ध एवं विलुप्त करना पर्यावरण के लिये विघातक , सर्वपोषक यज्ञमय तथा योगमय जीवन का विलोपक है। गङ्गादि नदियों के भुव: आदि ऊर्ध्वलोक उद्गमस्थल हैं , भूमण्डल इनका प्रवाह स्थल है और अतलादि अधोलोक इनके अन्तर्ध्यान स्थल हैं , अतएव गङ्गादि त्रिपथगा हैं। विकास के नाम पर इन्हें दूषित और विलुप्त करने का अभियान सर्वविनाशक सिद्ध होगा।

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