“हरितालिका तीज” छत्तीसगढ़ का महापर्व तीजा : सुहाग और सौभाग्य की सुरक्षा और समृद्धि के लिए कठिन निर्जला व्रत

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आलेख – श्रीमती मेनका वर्मा “मौली” भिलाई

भिलाई।जब जेठ की ताप और मई -जून की गर्मी की आंच में झुलसकर, सूख कर बेहाल हुए सभी जीव जन्तु, पेड़ पौधों और मनुष्यों के साथ ही धरती माता पर जब सावन की बूंदे पड़ती हैं, और धरती हरियाली का श्रृंगार करती है। तभी पूरे भारत वर्ष में सावन से भादो तक सारी स्त्रियां भी सुहाग और श्रृंगार का उत्सव मनाती हैं।इस दौरान मुख्यतः तीन तीज मनाए जाते हैं। हरियाली तीज,कजली तीज और हरितालिका तीज।जैसे जैसे मानसून अलग-अलग अलग क्षेत्रों में अलग-अलग समय प्रवेश करता है, वैसे-वैसे ही हमारे यहां अलग-अलग प्रांतों में अलग -अलग तीज को प्रमुखता से मनाया जाता है।छत्तीसगढ़ में केवल हरितालिका तीज मनाया जाता है, जो भादो के शुक्ल पक्ष की तीज और तीनों तीजों में आखरी तीज होती है।

 

पूरी दुनिया में यह रिवाज सिर्फ हमारे यहां छत्तीसगढ़ में ही है और इसलिए ही हमारा सबसे बड़ा त्योहार भी यही है। जिसमें कि बेटियों को किसी व्रत के लिए उनके ससुराल जाकर ससम्मान पीहर साथ लाया जाता है। और उसके सुहाग और सौभाग्य की सुरक्षा और समृद्धि के लिए उसके कठिन निर्जला व्रत की व्यवस्था उसके मायके में यथास्थिति की जाती है। जैसे माता पार्वती ने महादेव को पाने के के लिए किया था, और उस पर भी स्त्री स्वाभिमान की रक्षा का ये विधान कि जब तक उसके पति या जब उनका आना असंभव हो ससुराल से कोई अन्य लेने नहीं आये उसे वापस ससुराल नहीं जाने दिया जाता। ससुराल में तीज मनाना हमारे यहाँ अच्छा नही समझा जाता। इस दौरान दोनो पक्षों में ही बेटी और बहु की महत्ता और आवश्यकता का पता परिवार को चलता है। और मायके से उसे उसके पति और बच्चों को मिले प्रेम सद्व्यवहार और साड़ी ,सुहाग के सामानों आदि भेंट से आगे वर्ष भर के लिए उसका मन प्रफुल्लित और मान – सम्मान पुनः सुरक्षित हो जाता है। ये वार्षिक चार्जेबल बैटरी है जनाब इस सुख को बयां करना शब्दों के परे है।सोचती हूं यदि ये व्यवस्था न हुई होती तो क्या होता। हमारे बुजुर्गों ने कितनी दूरदर्शिता से परंपराएं बनाई हैं। वरना तो जैसे हम अपनी जिम्मेदारियों में रमते जाते हैं,सालों साल हमें माता-पिता और मायके के दर्शन ही न हो पाते।

नियम है कि हर स्त्री को विवाह उपरांत जीवित रहते तक तीज या तीजा में मायके से पूछा जाता है। और स्त्रियां भी ससुराल में शोक के अवसरों को छोड़कर जब तक उनमें चलने की शक्ति है कभी मायके जाना नहीं छोड़ती खाली हाथ वो भी नहीं आती अपने पिता या घर के मुखिया के लिए यथासंभव भेंट धोती/वस्त्र लेकर आती है जिसे व्रत की सुबह वो उनके कंधे पर रखकर प्रणाम कर जैसे व्रत के लिए शक्ति और सहयोग मांगती है। और ज्यादा समय के लिए नहीं भी आते बने तो व्रत का परायण कर प्रसाद लेकर लौट जाती है पर आती है और विपरीत परिस्थितियों में न ही आ सके तो सुबह सुबह उसके मायके से कोई उसके लिए फलाहार और व्रत खोलने का सामान और साड़ी सुहाग सामग्री लेकर पहुंच ही जाता है। अब दूरी अधिक होने से पार्सल भिजवा दिया जाता है। या किसी उसी शहर के संबंधी को कह व्यवस्था की जाती है। या उसके लिए पहले ही पैसे छोड़ दिए जाते हैं। फिर चाहे वह सधवा हो या विधवा। सुहाग का संबंध सात जन्मों के साथ का होता है न, तभी तो पतियों के जीवित न होने पर भी स्त्रियों के मान में तीज में कोई फर्क नहीं किया जाता।

आप अंदाजा लगा सकते हैं पूरे गांव में हर घर में केवल और केवल बेटियां ही बेटियां होती हैं हर उम्र की बेटियां बूढ़ी भी बड़ी भी अधेड़ भी युवा भी और बच्चियां भी जो दीदी, बुआ और दादी बुआ के स्नेह में मामा के घर नहीं जाती।बिना रोकटोक के पुत्रियों पर स्नेह लूटाते पिता भाई और भतीजों को देखकर जो आनंद मिलता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कभी रसोई में कदम न रखने वाले पिता और भाई- भतीजे, बेटियों- बहन और बुआ के साथ मिलकर व्यंजन या भोजन बनाने में सहयोग करते हुए जब हंसी ठहाकों के बीच बचपन याद करते हैं, तब छत्तीसगढ़ के हर गांव की फिजाओं में जैसे केवल खुशियां ही खुशियां चिड़ियों सी चहकती है। कृष्ण जन्माष्टमी मनाकर बेटियों को उनके ससुराल लिवाने जाने का रिवाज है। पहले की बेटियां पंद्रह- पंद्रह दिन रुकती थीं और अब भी रुकती हैं,पर अब व्यस्तताओं के चक्रव्यूह में आकंठ फंसी बेटियां द्वितीया की शाम मायके आकर चतुर्थी को ही रवाना हो जाती हैं। और हर बार बाबुल से बिदाई उनके लिए उतनी ही दुखदाई होती है।

द्वितीया की रात करेले , खेखसी आदि कसैली और कड़वी सब्जियों से बना कड़वा भोजन कर कड़वे दातुन करके सोना और सुबह कड़वी दातुन करके ,कड़वी या औषधीय उबटन से मौन व्रत स्नान से इस निर्जला व्रत की शुरुआत, दिन भर पूजा की तैयारी, मीठे नमकीन पकवान बनाना, रातभर फुलेरा सजाकर बालूमिट्टी से शिवलिंग के साथ माता पार्वती,गणेश और कार्तिकेय का प्रतीक बनाकर, माता पार्वती को श्रृंगार अर्पितकर शिव परिवार की पूजा भजन और जागरण के बाद सुबह स्नान के बाद पुनः पूजा के पश्चात मायके से मिले सुहाग और श्रृंगार की सामग्री पहन कर चतुर्थी की सुबह मीठे साबूदाने , सिंघाड़े या तिखूर कंद के मीठे कतरे (बर्फी) से व्रत खोलना हर बेटी को एक संदेश देता है कि जीवन में कड़वाहटों और अभावों की त्याग तपस्या पार करके ही मिठास की नदी मिलती है। सभी बहनें , बुआ,बुआ दादियां साथ बैठकर अपने घर व्रत खोलकर सभी रिश्तेदारों और पुरानी सहेलियों के घर प्रसाद का आमंत्रण स्वीकारते हुए फिर उसी गांव का भ्रमण करती हैं, जिन गलियों की मोड़ों पर , पेड़ों की साखों पर कुएं की मुंडेर पर उनकी इंतजार में बैठा उनका बचपन उन्हे उम्रदराज होते देखकर चिढ़ाता और खिलखिलाता हुआ फिर उनके साथ हो जाता है। हर तीज पर निर्जला व्रत रखते हुए मैं यही कामना करती हूं कि मुझे हर जन्म छत्तीसगढ़ की बेटी के रूप में ही मिले और ईश्वर मुझे इस धरती का नमक चुकाने की कुछ योग्यता और सामर्थ्य देकर ही भेजें। जहां बेटी को ही ब्राम्हण माना जाता है और खुशी शोक का कोई भी काम उसके बिना कभी सम्पन्न नहीं होता ।

लिखते हुए संवेदना की बाढ़ में डूब रही हूं कि, कैसे – बाड़ी की सब्जियां ,बगीचे के पेड़ का पहला फल, खेत की पहली फसल का अंश और गाय या भैंस के बछड़े जन्मने पर पहला दूध मेरे बूढ़े दादा अपने आखरी समय तक घंटो बस का सफर कर मेरे लिए भिलाई लेकर आते थे और कहते थे “बेटी ये तोर बांटा” ननिहाल से नाना के न रहने पर मामा मामी अब तक स्नेह में लपेटकर समान भिजवाते हैं। ( छतीसगढ़ में मामा के यहां से भी भांजियो को तीज का आमंत्रण मिलता है) इतना स्नेह यहां बेटियों को मिलता है कि बूढ़ी होने तक मायके में पिता काका या बड़े भाइयों भाभियों द्वारा उन्हे नोनी (गुड़िया का पर्याय) ही पुकारा जाता है। तभी तो यहां की बेटियां जमीदार घर की हों या जमादार घर की, मायके से सम्मान सहित केवल एक लोटा पानी ही चाहते हुए करोड़ों की जायदाद का बंटवारा ठुकरा कर भाई भतीजों को फलने फूलने और लाख बरस जीने का आशीष देकर अपनी ससुराल लौट जाती हैं।

आप सभी को तीज महापर्व की शुभ मंगल कामनाएं।

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