गेंड़ी एक लोकनृत्य भी है जो छत्तीसगढ़ की पुरातन लोक संस्कृति में से एक है। आज हरेली के दिन से भादों की तीजा पोला के दिन तक मनाया जाता है गेड़ी पर्व : हरियाली अमावस्या पर पितरों के नाम से लगाये जाते हैं पौधे भी
भुवन वर्मा बिलासपुर 8 जुलाई 2021
गेंड़ी एक लोकनृत्य भी है जो छत्तीसगढ़ की पुरातन लोक संस्कृति में से एक है। आज हरेली के दिन से भादों की तीजा पोला के दिन तक मनाया जाता है गेड़ी पर्व : हरियाली अमावस्या पर पितरों के नाम से लगाये जाते हैं पौधे भी
हरियाली अमावस्या आज — अरविन्द तिवारी की कलम से
रायपुर — श्रावण मास की अमावस्या को हरियाली अमावस्या के नाम से जाना जाता है जो इस बार आज पड़ रही है। इस तिथि को हरियाली अमावस्या के अलावा सावन अमावस्या और श्रावणी अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है। छत्तीसगढ़ के पहले त्यौहार होने के कारण इस पर्व को बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन वृक्षों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये इसे हरियाली अमावस्या के तौर पर जाना जाता है। शास्त्रों और पुराणों के अनुसार इस अमावस्या का व्रत करने का कई गुना फल प्राप्त होता है और व्यक्ति के लिये मोक्ष का द्वार खुलता है। इस दिन पितृ तर्पण करने , पिंडदान करने और श्राद्ध कर्म करने का बहुत ही उत्तम फल माना गया है। हरियाली अमावस्या पर पितरों के नाम से कुछ पौधे भी लगाये जाते हैं। इस दिन पीपल, बरगद, केला और तुलसी के पौधे लगाना सबसे अच्छा माना जाता है। हरियाली अमावस्या के दिन वृक्षारोपण से ग्रह दोष शांत होते हैं। इस तिथि का संबंध पितरों से भी माना जाता है , पितरों में प्रधान अर्यमा को माना गया है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि वह स्वयं पितरों में प्रधान अर्यमा हैं। हरियाली अमावस्या के दिन वृक्षारोपण से पितृगण भी तृप्त होते हैं , यानि इस दिन वृक्ष लगाने से प्रकृति और पितर दोनों ही संतुष्ट होकर मनुष्य को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। यह पर्व हरा भरा खेत खलिहान , किसानों की समृद्धि और पर्यावरण की सुरक्षा का संदेश देने के साथ मनाया जाता है। आज के दिन किसान प्रकृति की विशेष पूजा कर विश्व में हरियाली छाये रहने और सुख शांति बहने रहने की कामना करते हैं। इस दिन किसान धरती माता एवं प्रकृति की पूजा करते हुये खेतों में फसल लहलहाने हेतु आभार प्रकट करते हैं। खेती में उपयोग आने वाले कृषि औजार हल , हंसिया , कुल्हाड़ी , रापा , धमेला आदि के साथ- साथ गाय , बैल , भैंस आदि जानवरों को नहलाकर साफ सुथरा कर उनकी एवं कुल देवता की पूजा करते हुये माताओं , बहनों द्वारा बनाये गये चीला एवं खीर आदि का प्रसाद चढ़ाकर सभी को वितरित करते हैं। इस दिन किसान वृक्षारोपण कर पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का संदेश देते हैं। छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहते हैं , किसान धरती मां की सेवा करते हुये हमें अन्न प्रदान करते हैं जिससे हमारा भरण पोषण होता है। हम सबको धरती मां , प्रकृति एवं किसानों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये। कई जगहों में आज के दिन पीपल के वृक्ष की पूजा का विधान है। इस दिन पीपल, बरगद, केला, नींबू अथवा तुलसी का पौधारोपण भी करते हैं । नदी या तालाब में जाकर मछली को आटे की गोलियांँ खिलाना भी बड़ा ही फलदायी बताया गया है। अपने घर के पास चींटियों को चीनी या सूखा आटा खिलाये जाने की भी परंपरा है। मांँ लक्ष्मी की कृपा पाने के लिये घर के ईशान कोण में घी का दीपक जलाते हैं। आज की रात को पूजा करते समय पूजा की थाली में स्वस्तिक या ऊंँ बनाकर उस पर महालक्ष्मी यंत्र रखते हैं। वहीं धार्मिक दृष्टिकोण से श्रावणी अमावस्या पर पितरों की शांति के लिये पिंडदान और दान-धर्म करने का महत्व है। उत्तर भारत के विभिन्न मन्दिरों में और खासतौर पर मथुरा एवं वृन्दावन में हरियाली अमावस्या के अवसर पर विशेष दर्शन का आयोजन किया जाता है। भगवान कृष्ण के इन विशेष दर्शन का लाभ लेने के लिये बड़ी संख्या में भक्त मथुरा में द्वारकाधीश मन्दिर तथा वृन्दावन में बाँकेबिहारी मन्दिर जाते हैं। हालांकि कोरोना संक्रमण के चलते इस बार भी ऐसा संभव नहीं है इसलिये लोग पवित्र जल का मिश्रण करके घर पर स्नानदान करें। इससे भी गंगाजल में स्नान के समान पुण्य की प्राप्ति होगी। हरेली पर गेड़ी का अत्यंत महत्व है, घरों में जितने युवा बच्चे होते हैं उतनी गेड़ी का निर्माण कर बच्चे आनंद लेते हैं। गेड़ी का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि वर्षा ऋतु में रास्तों में कीचड़ अधिक होने के कारण बच्चे गेड़ी पर चढ़कर उसे पार करते हैं इससे बच्चों को प्रतिस्पर्धा के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। गेंड़ी एक लोकनृत्य भी है जो छत्तीसगढ़ की पुरातन लोक संस्कृति में से एक है। हरेली के दिन से भादों की तीजा पोला के दिन तक बच्चे गेंड़ी का उपयोग करते हैं भादो की तीजा को गेंड़ी का समापन होता है इस दिन बच्चे तालाब में जाकर स्नान करते हैं एवं गेड़ी को तालाब में छोड़कर ही आ जाते हैं , इसके बाद साल भर बच्चे गेड़ी पर नहीं चढ़ते।हरेली पर सुबह से शाम तक गेंड़ी , रस्साकशी , मटकी फोड़ , जलेबी दौड़ , नारियल फेंक आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। आज छत्तीसगढ़ की पुरातन लोक संस्कृति की अनेक विधायें सरकारी संरक्षण एवं सहयोग के अभाव में लुप्त होने के कगार पर है , शासन को इस ओर विशेष ध्यान देना होगा।